संपादकीय : आशीष गुप्ता / सोन प्रभात
सोशल मीडिया और न्यूज़ हमें महाकुंभ दिखा रहे हैं, उसकी भव्यता, उसमें हो रही गतिविधियों को दिखा रहे हैं। लेकिन सवाल यह है—क्या हम सच में वही देखना चाहते हैं, जो हमें दिखाया जा रहा है? या फिर हमें वही देखने को मजबूर किया जा रहा है, जिसे अधिक व्यूअरशिप मिल रही है?
हमारा भविष्य, हमारी आस्था और उससे जुड़े रिवाजों को समझना और देखना क्या हमारी प्राथमिकता है? या फिर हमें बार-बार ऐसी चीज़ें देखने को मिल रही हैं, जिनका असल अध्यात्म से कोई लेना-देना नहीं? उदाहरण के लिए, मोनालिसा नाम की एक शख्सियत वायरल हो जाती है, और पूरा सोशल मीडिया उस पर चर्चा करने लगता है। लेकिन यह केवल मोनालिसा की बात नहीं है—हमारे देश में कई ऐसे परिवार हैं, जो बंजारों की तरह जीवन यापन कर रहे हैं। मोनालिसा के परिवार की तरह अनेकों लोग कठिनाइयों से गुजर रहे हैं, लेकिन क्या हम उन पर ध्यान देते हैं?

सोशल मीडिया किसी भी विषय को एक बार वायरल कर देता है, और फिर उसके साथ अफवाहें, भ्रम और झूठी कहानियां जोड़कर समाज में फैलाना शुरू कर देता है। सबसे चिंताजनक बात यह है कि हम जानते हुए भी कि यह सच नहीं हो सकता, खुद उस झूठ की ओर आकर्षित होने लगते हैं। यह एक ऐसा जाल है, जिसमें हम फंसते चले जाते हैं।
महाकुंभ को सिर्फ एक तमाशा बनाकर देखना कितना सही?
महाकुंभ सिर्फ एक आयोजन नहीं, बल्कि हमारी सांस्कृतिक और आध्यात्मिक विरासत का एक महत्वपूर्ण पर्व है। इसमें देश-विदेश से आए सिद्ध महात्मा, संत और ज्ञानी पुरुष अपनी तपस्या और ज्ञान को साझा करने आते हैं। लेकिन सोशल मीडिया ने इसे एक अलग ही दिशा में मोड़ दिया है।
आध्यात्मिक मार्ग पर चलने वाले संतों से अनावश्यक और बेकार के सवाल पूछे जाते हैं—
“आपने परिवार क्यों छोड़ा?”
“आपने इतनी पढ़ाई करके बाबा बनना क्यों पसंद किया?”
कुछ सवालों का तो कोई तर्क ही नहीं बनता, फिर भी इन्हें पूछकर सनसनी फैलाई जाती है। किसी भी साधु, संत या तपस्वी से यह पूछना कि उन्होंने यह जीवन क्यों चुना, उनकी तपस्या, उनकी साधना को छोटा करने जैसा है।
सोशल मीडिया पर कई बार संतों के जवाबों को तोड़-मरोड़ कर पेश किया जाता है, जिससे उनका वास्तविक संदेश ही बदल जाता है। कोई व्यक्ति किस परिस्थिति में, किस भाव से कोई उत्तर दे रहा है, इसकी मूल भावना को समझे बिना, उसे गलत तरीके से समाज में फैलाना कहां तक सही है?
आईआईटी वाले बाबा :- समझने की जरूरत है, सवाल उठाने की नहीं
हाल ही में “आईआईटी वाले बाबा” नाम से मशहूर एक युवा संत की चर्चा खूब हुई। उन्हें लेकर सोशल मीडिया पर तरह-तरह की बातें बनाई गईं। लेकिन क्या हमने यह जानने की कोशिश की कि संत बनना कितना कठिन होता है? क्या यह केवल एक निर्णय भर है, या इसके पीछे कई वर्षों की साधना, गुरुओं की कठिन परीक्षाएं और आत्म-अनुशासन छिपा है?
उनसे उल-जुलूल सवाल पूछकर उन्हें फंसाने की कोशिश की गई, लेकिन उन्होंने बड़ी सहजता और धैर्य से हर प्रश्न का उत्तर दिया। वे आधुनिक दुनिया और अध्यात्म दोनों की गहरी समझ रखते हैं, इसलिए उन्होंने यह भी कहा—
“ऐसे सवाल किसी अन्य बड़े संत से मत पूछना।”
यह बताता है कि वे जानते हैं कि सोशल मीडिया कैसे काम करता है। लेकिन अफसोस की बात यह है कि कुछ लोगों ने बिना सोचे-समझे उन पर गलत आरोप लगाने शुरू कर दिए। किसी ने कहा कि वे नशे के कारण बाबा बने, तो किसी ने उन्हें पागल कह दिया। सवाल यह है—क्या हम दूसरों के जीवन के बारे में इतनी आसानी से निर्णय सुना सकते हैं? क्या हमने यह समझने की कोशिश की कि उनका मार्ग क्या था, उन्होंने किस कठिन तपस्या से गुजरकर यह जीवन अपनाया? उदाहरण कांटे वाले बाबा, हांथ ऊपर रखे रहने वाले बाबा, अनाज वाले बाबा समेत अनेकों है।
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सोशल मीडिया—आस्था और अध्यात्म को भटकाने का माध्यम?
आज सोशल मीडिया हमें महाकुंभ में आए सिद्ध संतों के विचार, उनके अध्यात्म, उनके ज्ञान को दिखाने के बजाय सिर्फ व्यूअरशिप बढ़ाने के लिए सनसनीखेज खबरें परोस रहा है। ऐसा लगता है कि आस्था, पूजा और संस्कृति केवल दिखावे तक सिमट गई है।
लोग शायद मेरे इस विचार से सहमत हों, लेकिन वास्तविकता यह है कि यदि हम समय रहते नहीं संभले, तो हम अपनी संस्कृति, अपने मूल्यों और अपने आत्मिक ज्ञान को खो देंगे।
अब यह हम पर निर्भर करता है कि हम क्या देखना चाहते हैं—आस्था का असली स्वरूप या सोशल मीडिया का दिखाया हुआ झूठ? बातें और भी हैं, लेकिन इस विचार को यहीं तक समेटता हूं।

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