सोनप्रभात – कला व साहित्य / कविता-: अनिल कुमार गुप्ता
तन्हाई में आज फिर से हम बचपन को ढूंढने चले हैं।।
रात होते ही सारे मित्रगण आ जाते थे,
फिर बेखौफ होकर हम सब दौड़ लगाते थे।
देर रात घर आते ही जब पापा डांट सुनाते थे,
मम्मी के आंचल में जाके चुपके से छुप जाते थे।
याद आती हैं वो गलियां जिनके नीचे हम पले है,
तनहाई में आज फिर से हम बचपन को ढूंढने चले हैं।जो बचपन था वही सस्ता था,
ना मंजिल का पता था,
ना सामने कोई कठिन रस्ता था,
जिम्मेदारियों का बोझ नहीं था तब,
तब तो मेरे कंधो पर बस्ता था।
यादों की ठंडक से हम बर्फ की तरह गले हैं, तन्हाई में आज फिर से हम बचपन को ढूंढने चले हैं।
नजरें होती थी हमेशा पतंगों की दुकान में,
मन लगता था मेरा सीरियल शक्तिमान में।
रात में हम सोते थे बेफिक्र खुले आंगन में,
गिनते रहते थे तारे हम पूरे आसमान में।
बचपन के दोस्त भी अब कम हो चले हैं, तन्हाई में आज फिर से हम बचपन को ढूंढने चले हैं।आइस-पायस, गिल्ली- डंडा, क्रिकेट में जान बसती थी,
हवाई जहाज देखने को नज़रे मेरी तरसती थी।
अगर हम सारे हंसते थे तो साथ में मौसम भी, खिलखिला कर हंसती थी।
यादों के संदूक में आज भी यादें बन्द पड़े हैं, तन्हाई में आज फिर से हम बचपन को ढूंढने चले हैं।पूरे दिन हम रहते थे शाम के इंतजार में,
फर्क नहीं पड़ता था कुछ भी हो जाए संसार में।
हमें उम्मीद होती थी खिलौने और मिठाई की,
पापा लेकर आएंगे क्यूंकि गए हैं वो बाज़ार में। इन सब बातों को सोचकर आंखें आंसू से भरे हैं,
तन्हाई में आज फिर से हम बचपन को ढूंढने चले हैं।शाका लाका बूम बूम और करिश्मा का करिश्मा था,
मार पड़ी थी क्योंकि तोड़ा दादा जी का चश्मा था। नंगे पांव सायकल के टायर को भगाना याद है,
जी चाहे वो करते थे हम, औरों की मर्जी बाद है।अनजान थे हम इन सब से कौन बुरे और कौन भले हैं,
तन्हाई में आज फिर से हम बचपन को ढूंढने चले हैं।
लालटेन से पढ़ना रात में,भोर में उठ जाना होता था
मार के रुलाते थे पहले फिर हमें फुसलाना होता था।
एक नयी ड्रेस हमारे लिए होती थी करोड़ों की,
उसके सामने दुनिया की दौलत को भी ठुकराना होता था।
जाते उस दौर में फिर से जहां पर अभी हम खड़े हैं,
तन्हाई में आज फिर से हम बचपन को ढूंढने चले हैं।स्याही और दवात ही हमारा खजाना होता था,
गलती करके मा से लिपट जाना होता था।
तब ना होती थी किसी बिस्तर की चाह हमें,
नींद आते ही कही भी लुढ़क जाना होता था।
हम बड़े हुए ही क्यों, ये बात आज मन मे पले हैं, तन्हाई में आज फिर से हम बचपन को ढूंढने चले हैं।उमर छोटी थी पर हमारे सपने बड़े होते थे,
दोस्तों के लिए हर घड़ी में खड़े होते थे।
ठन्डे पानी के लिए फ्रिज की जरूरत नहीं होती थी तब,
कुम्हार के बनाए सुंदर से मिट्टी के घड़े होते थे।
गवाह इन बातों के आज भी नीले आसमान के तले हैं, तन्हाई में आज फिर से हम बचपन को ढूंढने चले हैं।पहले छोटी छोटी बात पर हंसते मुस्कुराते थे,
उन्ही छोटी सी बात पर पल भर में रूठ जाते थे।
सबके सामने अनजान और मासूम बन जाते थे,
गलती भी हमारी होती थी और बहाने हम ही बनाते थे।
याद आती है मंदिर की घंटियां जब जब भी शाम ढले हैं,
तनहाई में आज फिर से हम बचपन को ढूंढने चले हैं।ना ही कोई अपना था ना कोई पराया होता था,
ना थी कोई जिम्मेदारी ना कोई मोहमाया होता था। सब करते थे प्यार तब बिना कोई स्वार्थ के,
चेहरे पर दिन रात मासूमियत छाया होता था।
जी करता है फिर से बचपन को लगाने हमको गले है,
तन्हाई में आज फिर से हम बचपन को ढूंढने चले हैं।बारिश के पानी में हम कागज के नाव चलाते थे,
नदियों में जाके हम सब तब रेत के महल बनाते थे।
चाहिए होती थी छुट्टी जब कभी भी स्कूल से,
हर बार ही दर्द और बुखार हमें आ जाते थे।
पहले जितने होते थे अब कहां उतने मनचले है,
तन्हाई में आज फिर से हम बचपन को ढूंढने चले हैं।पैसे चुराने पर दादाजी कान मरोड़ा करते थे,
तितलियों में धागे बांध के उनके पीछे दौड़ा करते थे।
तब की दीवाली में खुशियां भरमार होती थी,
हाथ में लेके मुर्गा छाप पटाखे फोड़ा करते थे।
हम कच्ची के घरों और पेड़ पौधों के साथ पले है,
तनहाई में आज फिर से हम बचपन को ढूंढने चले हैं।काश अगर ये सच होता कि कभी बड़े ना होते हम,
खेलते भाईयो बहनों संग मां के गोद में सोते हम।
स्कूल का वो होमवर्क और दादी के कहानियों के संग,
रहते अगर हमेशा तो बचपन का वजूद ना खोते हम।
अपनी इस छोटी रचना को अब हम अंत करने चले हैं,
तनहाई में आज फिर से हम बचपन को ढूंढने चले हैं।-अनिल कुमार गुप्ता
Ashish Gupta is an Indian independent journalist. He has been continuously bringing issues of public interest to light with his writing skills and video news reporting. Hailing from Sonbhadra district, he is a famous name in journalism of Sonbhadra district.