लेख– एस०के०गुप्त”प्रखर” – सोनप्रभात
विष्णु के अंशावतार एवं देवताओं के वैद्य भगवान धन्वन्तरि का प्राकट्यपर्व इस बार कार्तिक कृष्णपक्ष त्रयोदशी को 13 नवंबर शुक्रवार को मनाया जाएगा। यह पर्व प्रदोष व्यापिनी तिथि में मनाने का विधान है। इस दिन परिवार में सभी निरोग रहे इसके लिए घर के दरवाजे पर यमदेव का स्मरण करके दक्षिण डिश में दीपक स्थापित करना चाहिए। पारिवार के सभी सभी लोगो को इसी अवधि के मध्य ‘ॐ नमो भगवते धन्वंतराय विष्णुरूपाय नमो नमः। पूजन अर्चन करना चाहिए, जिससे परिवार में आरोग्यता बनी रहती है।

धनतेरस मनाये जाने के सन्दर्भ में एक घटना आती है कि, पूर्वकाल में देवराज इंद्र के गलत आचरण के परिणामस्वरूप महर्षि दुर्वासा ने तीनों लोकों को श्रीहीन होने का श्राप दे दिया था जिसके कारण अष्टलक्ष्मी पृथ्वी से अपने लोक चलीं गयीं। पुनः तीनो लोकों में श्री की स्थापना के लिए व्याकुल देवता त्रिदेवों के पास गए और इस संकट से मुक्त होने का उपाय पूछने लगे । महादेव ने देवों को समुद्रमंथन का सुझाव दिया जिसे देवताओं और दैत्यों ने तुरन्त इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया।
समुद्र मंथन में मंदराचल पर्वत को मथनी और नागों के राजा वासुकी को मथनी के लिए रस्सी बनाया गया। वासुकी के मुख की ओर दैत्य और पूंछ की ओर देवता थे और समुद्र मंथन आरम्भ हुआ। समुद्रमंथन से चौदह प्रमुख रत्नों की उत्पत्ति हुई जिनमें चौदहवें रत्न के रूप में स्वयं भगवान धन्वन्तरि प्रकट हुए जो अपने हाथों में अमृत कलश लिए हुए थे। भगवान विष्णु ने इन्हें देवताओं का वैद्य और वनस्पतियों तथा औषधियों का स्वामी नियुक्त किया। इन्हीं के वरदान स्वरूप सभी वृक्षों-वनस्पतियों में रोगनाशक शक्ति का प्रादुर्भाव हुआ। शरीर का साधन भी निरोगी शरीर ही है, तभी आरोग्य रुपी धन के लिए ही भगवान् धन्वन्तरि की पूजा आराधना की जाती है। ऐसा माना जाता है की इस दिन की आराधना प्राणियों को हमेशा निरोगी रखती है।
आजकल ‘धनतेरस’ का भी बाजारीकरण कर दिया है और इस दिन को विलासिता पूर्ण वस्तुओं के क्रय का दिन घोषित कर रखा है जो सही नहीं है। इसका कोई भी सम्बन्ध भगवान् धन्वन्तरि से नहीं है। ये आरोग्य और औषधियों के देव हैं न कि हीरे-जवाहरात या अन्य भौतिक वस्तुओं के। अतः इस दिन इनकी पूजा-आराधना और परिवार के स्वास्थ्य शरीर के लिए करते है क्योंकि, संसार का सबसे बड़ा धन आरोग्य शरीर है। आयुर्वेद के अनुसार भी काम,धर्म,अर्थ और मोक्ष की प्राप्ति स्वस्थ शरीर और दीर्घायु से ही संभव हो सकता है।
धन्वंतरी ने ही जनकल्याण के लिए अमृतमय औषधियों की खोज की थी। इन्हीं के वंश में शल्य चिकित्सा के जनक दिवोदास, सुश्रुत हुए जिन्होंने आयुर्वेद का महानतम ग्रन्थ सुश्रुत संहिता की रचना की औऱ आज भी यह ग्रन्थ जीवनोपयोगी है।

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