December 22, 2024 9:21 PM

Menu

भारत की पहली महिला शिक्षिका सावित्रीबाई फुले को, स्कूल जाने वाली हर लड़की को देना चाहिए धन्यवाद, जाने क्यू?

संपादकीय लेख- यू .गुप्ता / सोन प्रभात

भारत मे 1831 में एक ऐसी महिला का जन्म हुआ जिसने भारत में जाति प्रथा के खिलाफ और शिक्षा के लिए एक हथियार उठाया था। वह हथियार था कलम का और स्याही का तेज़। उनके जीवन काल में उन्हें साधारण मानव से भी नीचे समझा गया। हम आपसे बात कर रहे हैं सावित्रीबाई फुले की। सावित्रीबाई फुले एक भारतीय समाज सुधारक, शिक्षक और कवियत्री थी। सावित्रीबाई फुले का जन्म आज ही के दिन यानी 3 जनवरी 1831को महाराष्ट्र के सतारा जिले में हुआ था। उनका जन्म स्थान शिरवल से लगभग 15 किमी और पुणे से लगभग 50 किमी दूर था। सावित्रीबाई फुले की माता जी का नाम लक्ष्मी और पिता जी का नाम खांडोजी नेवासे पाटिल था। ये सबसे छोटी बेटी थीं, वे माली समुदाय से थी उनके तीन भाई-बहन थे। नौ साल की उम्र में उनकी शादी ज्योतिराव फुले से हो गई। अपने पति के साथ महाराष्ट्र में उन्होंने भारत में महिलाओं को शिक्षित करने और उनके अधिकारों को बेहतर बनाने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनको भारत के महिलाओं को शिक्षित करने के आंदोलन का जनक माना जाता है।

भारत की पहली महिला शिक्षिका

सावित्रीबाई फुले भारत की पहली महिला शिक्षिका थी। सावित्रीबाई फुले शिक्षक होने के साथ भारत के नारी मुक्ति आंदोलन की पहली नेता, समाज सुधारक और मराठी कवयित्री भी थी। इन्‍हें बालिकाओं को शिक्षित करने के लिए स्वर्ण समाज का कड़ा विरोध झेलना पड़ा था। कई बार तो ऐसा भी हुआ जब इन्हें समाज के ठेकेदारों से पत्थर भी खाने पड़े।

सावित्रीबाई की जब शादी हुई थी तो वह अशिक्षित थी। उनके पति ज्योतिराव फुले ने अपनी पत्नी सावित्रीबाई फुले और अपनी चहेरी बहन सगुणाबाई क्षीरसागर को उनके घर पर उनके खेत में काम करने के साथ-साथ पढ़ाया। ज्योतिराव फुले के साथ अपनी प्राथमिक शिक्षा पूरी करने के बाद उनकी आगे की पढाई उनके दोस्त सखाराम यशवंत परांजपे और केशव शिवराम भावलकर को इसकी जिम्मेदारी दी।

सावित्रीबाई ने 3 जनवरी 1848 में पुणे में अपने पति के साथ मिलकर विभिन्न जातियों की नौ छात्राओं के साथ महिलाओं के लिए पहले स्‍कूल की स्थापना किया। एक वर्ष में सावित्रीबाई और महात्मा ज्योतिबा फुले ने पांच नये विद्यालय खोलने में सफल हुए। उस समय के तत्कालीन भारत सरकार ने इन्हे इस कार्य के लिए उन्हें सम्मानित भी किया था। एक महिला प्रिंसिपल के लिये सन् 1848 में बालिका विद्यालय चलाना कितना मुश्किल रहा होगा, इसकी कल्पना शायद आज भी नहीं की जा सकती है। उस समय लड़कियों की शिक्षा पर सामाजिक पाबंदी लगी हुई थी। सावित्रीबाई फुले उस दौर में न सिर्फ खुद पढ़ीं, बल्कि दूसरी लड़कियों के पढ़ने का भी बंदोबस्त किया और भी पूरी तरह से सफल भी हुई।

छुआ-छूत, सतीप्रथा, बाल-विवाह थी बड़ी चुनौती

भारत में आजादी से पहले समाज के अंदर छुआ-छूत, सतीप्रथा, बाल-विवाह और विधवा-विवाह जैसी कुरीतियां व्याप्त थी। सावित्रीबाई फुले का जीवन बेहद ही मुश्किलों और कठिनाइयों से भरा रहा। दलित महिलाओं के उत्थान के लिए काम करने, छुआछूत के खिलाफ आवाज उठाने के कारण उन्हें एक बड़े सवर्ण वर्ग द्वारा काफी विरोध भी झेलना पड़ा था।वह स्कूल जाती थीं, तो उनके एक विशेष समाज के विरोधी उन्हें पत्थर मारते और उनके ऊपर गंदगी फेंकते थे। सावित्रीबाई एक साड़ी अपने थैले में लेकर चलती थीं और स्कूल पहुंच कर गंदी हुई साड़ी बदल लेती थीं। आज से एक सदी पहले जब लड़कियों की शिक्षा एक अभिशाप मानी जाती थी उस दौरान उन्होंने महाराष्ट्र की राजधानी पुणे में पहली बालिका विद्यालय खोलकर पूरे देश में एक नई पहल की शुरुआत की थी।

देश में विधवाओं की दुर्दशा भी सावित्रीबाई को बहुत दुख पहुंचाती थी। इसलिए 1854 में उन्होंने विधवाओं के लिए एक आश्रम खोला। उनके इस आश्रम गृह में निराश्रित महिलाओं, विधवाओं और उन बाल बहुओं को जगह मिलने लगी जिनको उनके परिवार वालों ने छोड़ दिया था। सावित्रीबाई उन सभी को पढ़ाती लिखाती थीं। समाज में महिलाओं को हक दिलाना उनका लक्ष्य था। उन्होंने इस संस्था में आश्रित एक विधवा के बेटे यशवंतराव को भी गोद लिया था। उस समय आम गांवों में कुंए पर पानी लेने के लिए दलितों और नीच जाति के लोगों का जाना भी वर्जित था। यह बात उन्हें और उनके पति को बहुत परेशान करती थी। इसलिए उन्होंने अपने पति के साथ मिलकर एक कुआं खोदा ताकि वह लोग भी आसानी से पानी ले सकें। उनके इस कदम का उस समय काफी विरोध हुआ था।

सावित्रीबाई फुले के पति ज्योतिराव फुले का निधन 1890 में हो गया। उस समय उन्‍होंने सभी समाज में फैले हुए कुरीतियों को पीछे छोड़ते हुए उन्होंने अपने पति का अंतिम संस्कार किया और उनकी चिता को अग्नि दी।

इसके करीब सात साल बाद जब 1897 में पूरे महाराष्ट्र में प्लेग की बीमारी फैला तो वे प्रभावित क्षेत्रों में लोगों की मदद करने निकल पड़ी, इस दौरान वे खुद भी प्लेग की शिकार हो गई और एक महान समाज सुधारक और भारत की पहली महिला शिक्षिका वीरांगना की 10 मार्च 1897 को उन्होंने अंतिम सांस ली और पंचतत्व में विलीन हो गई आज ही हम सभी लोग उनकी महान कार्यों को याद करके उनको नमन करते हैं और उनसे प्रेरणा लेते हैं।

Ad- Shivam Medical

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

For More Updates Follow Us On

For More Updates Follow Us On