सोनप्रभात- (धर्म ,संस्कृति विशेष लेख)
– जयंत प्रसाद ( प्रधानाचार्य – राजा चण्डोल इंटर कॉलेज, लिलासी/सोनभद्र )
–मति अनुरूप–
ॐ साम्ब शिवाय नम:
श्री हनुमते नमः
गिरा अरथ जल बीचि सम, कहियत भिन्न न भिन्न।
वन्दौ सीताराम पद, जिन्हहिं परम प्रिय खिन्न।
श्री रामचरितमानस में “नर इव चरित करत रघुराई” अर्थात् सीता वियोग में राम विलाप कर रहे हैं पर राम और सीता वाणी और अर्थ तथा जल और लहर की तरह कहने में अलग-अलग भले ही हों पर यह दो नहीं हैं। राम और सीता एक ही तत्व हैं, जो अलग-अलग भाषित होने पर भी न अलग-अलग है, न ही अलग-अलग हो सकते हैं। मनु और शतरूपा प्रसंग में मनु और शतरूपा ने प्रभु से वर याचना की कि– हे प्रभु ! आपका दर्शन हो, आपके समान पुत्र हो, आपसे प्रेम हो (मनि विनु फनि जिमि जल विनु मीना) आदि। प्रभु ने दोनों के सभी वरदान पूरे करते हुए अपने से भी कुछ वरदान जोड़ कर दिया। यथा–
आदि सक्ति जेहि जग उपजाया। सोउ अवतरिहिं मोरि यह माया।
इस प्रकार ईश्वर की माया (सीता) दृश्य और अदृश्य रूप से सदैव प्रभु से अभिन्न है, इन्हें प्रभु स्वयं भी अलग नहीं कर सकते।
श्री राम वन गमन प्रसंग में जब सुमन्त जी ने राम लखन को लौटाने का प्रयास किया और वे नहीं लौटे तो सीता को लौटाने हेतु श्री दशरथ जी का संदेश राम से कहा–
जेहि विधि अवध अव फिरि सिया। सोइ रघुवरहिं तुम्हहिं करनीया।
श्री राम जी ने सीता को अनेक प्रकार समझा कर लौट जाने को कहा, पर राम और सीता एक हैं, अलग नहीं हो सकते। इस निमित्त सीता कथन द्वारा मानस का संकेत अवलोकनीय है–
प्रभु करुनामय परम विवेकी। तनु तजि रहति छाँह किमि छेंकी।
प्रभा जाइ कहँ भानु विहाई। कहॅं चन्द्रिका चन्दु तजि जाई।
यहां प्रथमत: तन और छाया की उपमा से श्री दशरथ जी को लक्ष्य कर कहा गया कि तन से छाया का वियोग असंभव है, क्योंकि दशरथ जी की यही आज्ञा है– “जौ नहिं फिरहिं धीर दोउ भाई” तो “फेरिय प्रभु मिथिलेस किसोरी।” श्री सीता जी ने इसी को असम्भव बतलाने हेतु कहा कि कोई कितना भी प्रयत्न करले पर शरीर के साथ छाया को जाने से कोई रोक नहीं सकता, स्वयं शरीर भी अपनी छाया को अलग नहीं कर सकता।
दूसरा उपमा ‘ प्रभा और भानु’ प्रभु के मुख से निकली हुई बात– ‘ फिरहु त सब कर मिटै खबारु’ की सलाह या आज्ञा पालन की असमर्थता में दी गयी। तात्पर्य यह है कि मेरी क्या सामर्थ्य कि मैं प्रभु से एक क्षण के लिए भी विलग हो सकूं। कहीं सूर्य से उसकी प्रभा अलग हो सकती है ? सूर्य के ओट होते ही प्रभा का तो अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा या राम से अलग होकर सीता जी का जीवन ही संभव नहीं होगा।
तीसरी उपमा “चन्द्र और चंद्रिका” से दी गयी, यह दूसरी उपमा के समर्थन में कही गई है जो दूसरी उपमा को पूर्णता प्रदान कर रही है। इस कथन से श्री सीता जी यह कहना चाहती हैं कि प्रकाश के साथ ही छाया की कल्पना हो सकती है। सूर्य और प्रभा तथा चंद्र और चंद्रिका की तरह सदैव राम सीता में अभिन्नता है, अर्थात राम सीता का वियोग अहनिर्श असंभव है, जैसे दिन में सूर्य से प्रभा और रात में चंद्रमा से चांदनी अलग नहीं हो सकती उसी प्रकार सीता राम कभी अलग हैं ही नहीं, हो ही नहीं सकते–
गिरा अरथ जल बीचि सम, कहियत भिन्न न भिन्न।
वन्दौ सीताराम पद, जिन्हहिं परम प्रिय खिन्न।
– सियावर रामचंद्र की जय–
– जयन्त प्रसाद
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