सोनप्रभात- (धर्म ,संस्कृति विशेष लेख)
– जयंत प्रसाद ( प्रधानाचार्य – राजा चण्डोल इंटर कॉलेज, लिलासी/सोनभद्र )
–मति अनुरूप–
ॐ साम्ब शिवाय नम:
श्री हनुमते नमः
प्रनवउ परिजन सहित विदेहू। जाहि रामपद गूढ़ सनेहू।
जोग भोग महुँ राखेउ गोई। राम विलोकत प्रगटेउ सोई।
रामचरितमानस की वंदना प्रसंग में यह संकेत किया गया है, कि जनक जी के हृदय में राम के चरणों में गूढ़ प्रेम था। जिसे उन्होंने योग और भोग में छिपा रखा था, पर राम के दर्शन होते ही वह प्रकट हो गया।
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राम के चरणों में गूढ़ स्नेह (भक्ति रत्न) को जनक जी ने अपने मन के डिब्बे में छिपा रखा था। जिस डिब्बे का ऊपर का पल्ला तो भोग का था और निचला पल्ला योग का, इन्हीं के बीच रामभक्ति– रत्न छिपा हुआ था। यही कारण था कि जनक जी साधारण लोगों की दृष्टि में भोगी प्रतीत होते थे और ज्ञानी जनों की दृष्टि में योगी। यही भक्ति– “राम विलोकत प्रगटेउ सोई।” और फिर–
मूरति मधुर मनोहर देखी। भयउ बिदेह बिदेह विसेषी।
अर्थात योगी जनक साकार ब्रह्म को देखकर सचमुच विदेह हो गये (देह की सुधि जाती रही)। स्वभाव से बैरागी का सांसारिक सौंदर्य के प्रति आसक्ति अस्वाभाविक है, परंतु वही प्रेम जो छिपा हुआ था, राम के निरखते ही प्रकट हो गया।
मानस में मुख्य रूप से तीन प्रकार के आनंद का वर्णन है–
- विषयानन्द– सांसारिक या ऐन्द्रिक सुख जो मोह जनित व त्याज्य है।
- ब्रह्मानंद – निराकार ब्रह्म के योग सानिध्य से प्राप्त आनंद। और
- परमानंद – वह अनुपम सुख सगुण ब्रह्म के साक्षात्कार से प्राप्त होता है, इसे ही भजनानन्द या प्रेमानन्द भी कहते हैं।
प्रेमानंद या परमानन्द ब्रह्मानन्द से भी अधिक सरस है, इसी कारण–
इन्हहिं विलोकत अति अनुरागा।बरबस ब्रह्म सुखहिं मन त्यागा।
अर्थात् ब्रह्मानंद तो जनक जी को प्राप्त था ही पर इन्हें देखते ही ब्रह्मान्द को त्याग परमानन्द में आकर्षित हो गया। इसी प्रकार का एक प्रसंग राम जन्म के वर्णन के समय लक्षित हो रहा है।–
दसरथ पुत्र जन्म सुनि काना। मानहु व्रह्मानंद समाना।
अर्थात् जब दशरथ जी को पुत्र प्राप्ति का संदेश मिला तो वे यज्ञादि (पुत्रेष्टि) से प्राप्त योगियों के उस सुख का अनुभव किया, जो ब्रहम सुख है, परन्तु ज्योही उन्हें आभाष हुआ कि यह तो वही (ब्रहम) मेरे घर पुत्र के रूप में आया है अर्थात वही निराकार पुत्र के रूप में साकार बन कर आया है, तो उन्हें परमानन्द प्राप्त हुआ–
परमानन्द पूरि मन राजा। कहा बोलाइ बजावहु बाजा।
जनक जी ने राम लखन का परिचय जानने के लिए प्रश्न किया। हे मुनि– ये मुनि कुल तिलक (मुनि के साथ होने के कारण) है, या श्रेष्ठ राजाओं के गुण धारण करने वाले नृप कुल पालक।( राजसी वेश देखकर) या फिर निराकार ही साकार बन आया है–
ब्रहम जो निगम नेति कहि गावा। उभय बेष धरि की सोइ आवा।
सत्य–सत्य बताया जाए, छुपाया न जाए। इस पर मुनि ने सत्य–सत्य बताना प्रारम्भ किया कि हे राजा आपका अनुमान बिल्कुल ठीक है–
कह मुनि विहसि कहेहु नृप नीका। बचन तुम्हार न होइ अलीका।
ए प्रिय सवहिं जहा लगि प्रानी। मन मुसुकाहिं राम सुनि बानी।
इस प्रकार ज्यों ही मुनि ने प्रभु का रहस्योद्घाटन आरम्भ किया, राम मुस्कुराने लगे। दो श्रेष्ठ जनों के वार्ता के बीच गंभीर स्वभाव वाले राम का अकारण मुस्कुराना बेमेल है। पर ऐसा करके राम ने रहस्योद्घाटन न करने का संकेत मुनि को दिया और सद्य ही मुनि ने अपनी बात दूसरी पटरी पर डाल दी कि ये दोनों दशरथ के पुत्र हैं और मेरे यज्ञ की रक्षा किए है– “रघुकुल मनि दसरथ के जाये।” और
मख राखेउ सब साखि जग, जिते असुर संग्राम।
अर्थात् ये आपके समतुल्य(रिश्तेदारी करने लायक) दशरथ के पुत्र हैं और मेरे यज्ञ के समान ही आपके यज्ञ की रक्षा करने में समर्थ है। यह सुनते ही जनक जी को निश्चय हो गया कि यह साकार ब्रह्म है और बैरागी मन ब्रह्मानंद को त्याग परमानंद में निमग्न हो गया–
सहज विराग रूप मन मोरा। थकित होत जिमि चन्द चकोरा।
तथा जोग– भोग में छिपा राम गूढ़ प्रेम साकार ब्रह्म दे दर्शन करते ही प्रकट हो गया।
प्रनवउ परिजन सहित विदेहू। जाहि राम पद गूढ़ सनेहू।
जोग भोग मह राखेउ गोई। राम विलोकत पगटेउ सोई।
-सियावर रामचंद्र की जय-
–जयंत प्रसाद
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