सोनप्रभात- (धर्म ,संस्कृति विशेष लेख)
– जयंत प्रसाद ( प्रधानाचार्य – राजा चण्डोल इंटर कॉलेज, लिलासी/सोनभद्र )
–मति अनुरूप–
ॐ साम्ब शिवाय नम:
श्री हनुमते नमः
“मनि बिनु फनि जिमि जल बिनु मीना। मम जीवन तिमि तुम्हहिं अधीना।।”
जब मनु और शतरूपा की 23 हजार वर्ष की तपस्या पूर्ण हुई तो वर मांगने हेतु गगनवाणी हुई, मनु की इच्छानुसार ईश्वर का प्राकट्य हुआ तो मनु जी ने “चाहउँ तुम्हहिं समान सुत।” का वरदान प्राप्त किया। फिर प्रभु ने शतरूपा को अवसर दिया–
“सतरूपहिं विलोकि कर जोरे। देवि माँगु वरू जो रूचि तोरे।
तो श्री शतरूपा जी ने अपने पति से भी आगे बढ़कर वरदान प्राप्त कर ली और पति के वरदान के साथ ही सुख, सुगति, भक्ति और विवेकादि भी मांग लिया। ” जो बरू नाथ चतुर नृप माँगा। “ के साथ ही–
सोइ सुख सोइ गति सोइ भगति, सोइ निज चरन सनेहु।
सोइ विवेक सोइ रहनि प्रभु हमहिं कृपा करि देहु।
प्रभु ने उन्हें याचित वर के अतिरिक्त भी समस्त रुचि पूर्ण कर दी। यथा–
जो कछु रूचि तुम्हरे मन माहीं। मै सो दीन्ह सब संसय नाहीं।
यद्यपि कि सतरूपा जी ने – “जो बरु नाथ चतुर नृप मांगा।” कह कर अपने पति मनु को बड़ाई या आदर दिया, साथ ही पति के रुप में मनु का साथ जन्म जन्मांतर के लिए पक्का कर लिया और प्रभु के मातृपद को भी सुरक्षित कर लिया अन्यथा राजाओं की तो अनेक रानियां होती थी, प्रभु मनु के किसी और पत्नी को भी मातृपद प्रदान कर सकते थे और मनु महाराज के मन में यह बात अवश्य आयी कि शतरूपा वर मांगने में मुझसे और आगे निकल गयी। अतः मुझे कुछ और मांगना चाहिए या हो सकता है कि शतरूपा हमें कुछ और मांगने का संकेत कर रही है, इस कारण मनु ने प्रभु से पुन: वर याचना की– ‘ बन्दि चरन मनु कहेउ बहोरी।’
मनि विनु फनि जिमि जल विनु मीना। मम जीवन तिमि तुम्हहिं अधीना।
मनु जी ने अपने वरदान मे दो उपमाओं का प्रयोग किया, पहला– ” मनि बिनु फनि” एवं दूसरा– “जल बिनु मीना।” यही मनु और शतरूपा जब कोशल में दशरथ और कौशल्या के रूप में प्रकट हुए तो राम का वियोग दशरथ जी से दो बार हुआ। पहला जब विश्वामित्र जी उन्हें मांग ले गए और दूसरी बार वन गमन के समय ।
पहली बार राम के वियोग में दशरथ जी ‘मनि बिनु फनि’ अर्थात मणिहीन मणिधर की तरह तड़पते रहे और दूसरी बार वन गमन के वियोग में ‘जल बिनु मीना’ अर्थात जल बिना मछली की तरह तड़प–तड़प कर प्राण त्याग दिए–
राम राम कहि राम कहि, राम राम कहि राम।
तनु परिहरि रघुवर विरह राउ गयउ सुर धाम।
यहां एक बात और भी विचारणीय है कि लोकहित या फिर परलोक हित के लिए भी जब कोई स्त्री अपने पति के अनुगमन का त्याग कर दे तो भले ही वह पति से आगे बढ़ जाए पर पति के अनुगमन त्याग के कारण उसके जीवन में पश्चाताप अवश्य आता है, उसे पश्चाताप करना ही पड़ता है, जैसा कि कौशल्या जी को पश्चाताप करना पड़ा–
जिऐ मरै भल भूपति जाना। मोर हृदयसत कुलिस समाना।
इस प्रकार कौशल्या जी अपने चरित्र से सामान्य स्त्रियों को यह शिक्षा दे रही हैं, कि लोक और परलोक दोनों ही की दृष्टि से पति के अनुगमन का आचरण ही श्रेयस्कर है।
–जय श्री सीताराम–
– जयन्त प्रसाद
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