Posted By- Ashish Gupta (Editor – Sonprabhat News)
हिंदी साहित्य जगत में आज एक महत्वपूर्ण क्षण दर्ज हुआ जब आई पी एम, पी पी एम, दिल्ली के साहित्यकार राम दास गुप्ता ने विख्यात कवि श्री सुरेश गुप्त ग्वालियरी की ओजस्वी और प्रेरणादायी कविता “हमारी हिन्दी” पर लगभग 2000 शब्दों की विस्तृत साहित्यिक समीक्षा प्रस्तुत की।
इस अवसर पर श्री गुप्ता ने अपने पत्र में लिखा –
“आपकी ओजस्वी और प्रेरणादायी कविता “हमारी हिन्दी” पढ़कर मन अत्यंत प्रफुल्लित हुआ। आपने हिंदी भाषा की विराटता, उसकी सांस्कृतिक गहराई और साहित्यिक धरोहर को हिमालय, सागर, अंबर जैसे प्रकृति-प्रतीकों और मीरा, सूर, तुलसी, दिनकर, कबीर, प्रेमचंद, महादेवी, पंत तथा निराला जैसे महाकवियों के संदर्भों से जिस भावभूमि में प्रस्तुत किया है, वह अनुपम और सराहनीय है।
आपकी इसी रचना पर मैंने एक विस्तृत साहित्यिक समीक्षा लिखी है। यह समीक्षा केवल आपके प्रति आदर और स्नेह भाव से प्रस्तुत कर रहा हूँ। कृपया इसे स्वीकार करें और यदि कोई त्रुटि रह गई हो तो अपना स्नेहिल मार्गदर्शन दें।”
इसके बाद उन्होंने समीक्षा का पूरा पाठ साझा किया।

“हमारी हिन्दी” : एक साहित्यिक समीक्षा और कवि-प्रज्ञा का मूल्यांकन
कवि : श्री सुरेश गुप्त ग्वालियरी
1. प्रस्तावना : हिंदी का महत्त्व और कविता की पृष्ठभूमि
भाषा केवल संप्रेषण का साधन नहीं होती, वह किसी संस्कृति की आत्मा और किसी समाज की पहचान होती है। हिंदी भारतीय समाज की जनभाषा है, जो करोड़ों लोगों की संवेदनाओं, विचारों और जीवनानुभवों को व्यक्त करती है। साहित्यकार जब हिंदी की स्तुति करते हैं तो वास्तव में वे अपनी सांस्कृतिक जड़ों और राष्ट्रीय चेतना को प्रणाम करते हैं।
श्री सुरेश गुप्त ग्वालियरी की कविता “हमारी हिन्दी” इसी भावभूमि से उपजी है। यह कविता हिंदी को मात्र बोलचाल या व्यवहार की भाषा नहीं मानती, बल्कि उसे हिमालय की दृढ़ता, सागर की गहराई, अंबर की ऊँचाई और संत-कवियों से लेकर आधुनिक कवियों तक की काव्य-धारा का वाहक मानती है। यह कविता हिंदी का गौरवगान है, जिसमें भाषा का ऐतिहासिक विकास, साहित्यिक महिमा और सांस्कृतिक भूमिका एक साथ गुँथी हुई है।
2. कविता का भाव-संरचना विश्लेषण
कविता कई बिंबों और रूपकों के माध्यम से हिंदी की बहुआयामी छवि प्रस्तुत करती है।
“हिमालय सम दृढ़ता” – हिंदी की स्थिरता और अटल अस्तित्व का प्रतीक।
“सागर की गहराई” – हिंदी के भाव-संसार की व्यापकता और गहराई।
“मधुर ध्वनि की कल-कल” – इसकी संगीतात्मकता और कोमलता।
“अंबर सी ऊँचाई” – इसकी असीम संभावनाएँ और विस्तार।
“संस्कृत है जननी इसकी” – भाषा की जड़ों और शास्त्रीय परंपरा का स्मरण।
“मीरा का प्रेम, सूरदास की भक्ति, तुलसी की मर्यादा” – भक्ति युगीन साहित्यिक गुण।
“दिनकर जी की शक्ति” – आधुनिक युग की राष्ट्रीय चेतना और संघर्ष का स्वर।
“कबीर का फक्कड़पन, प्रेमचंद का गाँव” – यथार्थवाद और समाज-सापेक्षता।
“महादेवी का छायावाद, पंत-निराला का भाव” – आधुनिक कविता की भावुकता और नवीनता।
“जन-मन की अभिलाषा, संस्कृति की दाता” – हिंदी को जन-आकांक्षाओं और सांस्कृतिक निरंतरता का वाहक बताना।
इस प्रकार कविता भावनात्मक श्रद्धा और तार्किक विवेचन दोनों को एक साथ प्रस्तुत करती है।
3. रूपक और प्रतीकों की तर्कसंगत व्याख्या
3.1 “हिमालय सम दृढ़ता”
हिमालय भारतीय भूगोल में स्थिरता, अडिगता और महिमा का प्रतीक है। हिंदी ने भी अनेक ऐतिहासिक झंझावातों के बावजूद अपनी निरंतरता और जीवट बनाए रखी है। अंग्रेजी के प्रभुत्व और क्षेत्रीय भाषाओं की चुनौतियों के बावजूद हिंदी का अस्तित्व अटल रहा। यह रूपक हिंदी की जीवटता और स्थिरता का द्योतक है।
3.2 “सागर की गहराई”
सागर की गहराई अनंत है। उसी प्रकार हिंदी का साहित्यिक संसार—कथा, कविता, नाटक, गद्य, लोकगीत, भक्ति और आधुनिक साहित्य—असीम गहराई लिए हुए है। इसमें भावों की विविध परतें हैं—भक्ति, प्रेम, करुणा, व्यंग्य, राष्ट्रीय चेतना—जो किसी भी पाठक को भीतर तक डुबो सकती हैं।
3.3 “अंबर सी ऊँचाई”
अंबर की ऊँचाई मानव कल्पना की सीमा से परे है। हिंदी की भी यही स्थिति है—उसकी संभावनाएँ केवल भारत तक सीमित नहीं, बल्कि वैश्विक स्तर पर फैली हैं। प्रवासी भारतीयों द्वारा हिंदी साहित्य और सिनेमा के माध्यम से यह भाषा अंतरराष्ट्रीय ऊँचाई तक पहुँची है।
3.4 “मीरा का प्रेम”
मीरा का प्रेम आत्मसमर्पण और भक्ति का शिखर है। हिंदी को “मीरा का प्रेम” कहने का आशय है कि इस भाषा में निष्कलुष भाव और आध्यात्मिक समर्पण का रस सहजता से बहता है। हिंदी में लिखी गई भक्ति कविताएँ आज भी जन-मन को उसी तीव्रता से छूती हैं।
3.5 “सूरदास की भक्ति”
सूरदास वात्सल्य रस के महान कवि थे। हिंदी को उनसे जोड़ना इस बात को दर्शाता है कि हिंदी की आत्मा भक्ति और प्रेम की भाषा है। यह भाषा दिव्य और मानवीय दोनों संबंधों की गहराई व्यक्त कर सकती है।
3.6 “तुलसी की मर्यादा”
तुलसीदास की रामचरितमानस ने मर्यादा, धर्म और आदर्श जीवन का आदर्श दिया। हिंदी को “तुलसी की मर्यादा” कहना इस बात का प्रतीक है कि यह भाषा हमें नैतिकता, संयम और जीवन की मर्यादा सिखाती है।
3.7 “दिनकर जी की शक्ति”
रामधारी सिंह दिनकर ने हिंदी को वीर रस, राष्ट्रीय चेतना और युगबोध से अनुप्राणित किया। उनका काव्य हिंदी को एक सशक्त राष्ट्रभाषा के रूप में स्थापित करता है। यह रूपक हिंदी की ऊर्जा और संघर्षशीलता का प्रतीक है।
3.8 “कबीर दास का फक्कड़पन”
कबीर की वाणी निर्भीकता और स्पष्टवादिता का उदाहरण है। हिंदी का स्वरूप भी यही है—वह सीधे-सादे शब्दों में गहरी बात कह देती है। हिंदी किसी भी प्रकार के आडंबर को स्वीकार नहीं करती।
3.9 “प्रेमचंद का गाँव”
प्रेमचंद ने हिंदी कथा-साहित्य को गाँव, किसान और आम आदमी की आवाज़ दी। हिंदी को प्रेमचंद से जोड़ना इसका जनजीवन से गहरा जुड़ाव दिखाता है। यह भाषा शहरों की नहीं, बल्कि गाँवों की भी आत्मा है।
3.10 “महादेवी का छायावाद”
महादेवी वर्मा की कविता करुणा, संवेदनशीलता और अंतर्मुखी भावों से भरी है। हिंदी में यह करुणा और कोमलता हमेशा से प्रवाहित रही है।
3.11 “पंत और निराला का भाव”
पंत ने प्रकृति की सौंदर्य दृष्टि दी, निराला ने नव्य चेतना और विद्रोह का स्वर। इन दोनों को जोड़कर हिंदी का आधुनिक और नवाचारी पक्ष सामने आता है।
3.12 “जन-मन की अभिलाषा”
हिंदी को जन-मन की अभिलाषा कहना तर्कसंगत है। हिंदी केवल प्रशासन या शिक्षा की भाषा नहीं, बल्कि करोड़ों लोगों के दिल की भाषा है। इसमें जनता की आकांक्षाएँ और जीवनानुभव समाए हैं।
3.13 “संस्कृति की दाता”
हिंदी भारतीय संस्कृति की वाहक और संरक्षिका है। यह संस्कृत से उपजी है और उसने भारतीय परंपरा को युगों-युगों तक जीवित रखा है। यह रूपक भाषा की सांस्कृतिक भूमिका को स्पष्ट करता है।
4. कविता की शैलीगत विशेषताएँ
भाषा की सहजता – कविता में कठिन शब्दों का बोझ नहीं है; भाषा सरस, लयात्मक और गेय है।
अनुप्रास और पुनरुक्ति – “हिमालय सम दृढ़ता”, “सागर की गहराई”, “मीरा का प्रेम”—ये अनुप्रास कविता की संगीतात्मकता बढ़ाते हैं।
संक्षिप्तता और प्रभाव – छोटे-छोटे बिंब गहन भावों को व्यक्त करते हैं।
ऐतिहासिक–साहित्यिक विस्तार – भक्ति युग से लेकर आधुनिक युग तक की साहित्यिक विभूतियों का उल्लेख कविता को गहराई देता है।
5. कवि की प्रतिभा और प्रज्ञा का मूल्यांकन
श्री सुरेश गुप्त ग्वालियरी की प्रतिभा का सबसे बड़ा प्रमाण है कि उन्होंने हिंदी जैसी व्यापक और बहुआयामी भाषा को इतने संक्षिप्त रूप में रूपकों और बिंबों के सहारे प्रस्तुत कर दिया।
उनकी प्रज्ञा इस बात में है कि वे हिंदी को केवल भावनात्मक स्तर पर नहीं, बल्कि साहित्यिक इतिहास और सांस्कृतिक परंपरा से जोड़कर प्रस्तुत करते हैं।
श्री सुरेश गुप्त ग्वालियरी ने लोकजीवन, भक्ति, राष्ट्रीय चेतना और आधुनिक नवजागरण—सभी को एक ही काव्यांश में समेट लिया है।
उनकी काव्य-दृष्टि संतुलित है—वे न तो अतीत में अटकते हैं और न केवल वर्तमान में सिमटते हैं, बल्कि भाषा की निरंतर यात्रा का चित्रण करते हैं।
उनकी प्रतिभा इस बात में है कि वे कठिन विषय को सहज, गेय और प्रेरणादायी भाषा में कहते हैं।
6. साहित्यिक परिप्रेक्ष्य
हिंदी भाषा पर लिखी गई कविताओं की परंपरा पुरानी है। हरिवंशराय बच्चन, मैथिलीशरण गुप्त, रामधारी सिंह दिनकर आदि ने हिंदी की महिमा पर लिखा। परंतु श्री सुरेश गुप्त ग्वालियरी की यह कविता इस परंपरा में अपनी अलग छाप छोड़ती है, क्योंकि इसमें हिंदी का गौरव प्रकृति के रूपकों और साहित्यिक विभूतियों के गुणों के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है।
यह कविता न केवल भाषा की प्रशंसा है, बल्कि एक सांस्कृतिक दस्तावेज़ है जो बताती है कि हिंदी में ही भारत की आत्मा बसती है।
7. निष्कर्ष
श्री सुरेश गुप्त ग्वालियरी की कविता “हमारी हिन्दी” हिंदी भाषा के गौरव और महिमा का उत्कृष्ट काव्यात्मक गान है। इसमें प्रयुक्त रूपक—हिमालय, सागर, अंबर, मीरा, सूर, तुलसी, दिनकर, कबीर, प्रेमचंद, महादेवी, पंत और निराला—हिंदी की विविधता और उसकी समृद्ध परंपरा का संपूर्ण चित्र उपस्थित करते हैं।
कवि की प्रतिभा इस तथ्य में है कि श्री सुरेश गुप्त ग्वालियरी ने हिंदी को केवल भाषा न मानकर संस्कृति, धर्म, साहित्य और जनजीवन की धुरी के रूप में प्रस्तुत किया। कविता में भाव, शिल्प और विचार का अद्भुत संतुलन है।
इस दृष्टि से यह रचना हिंदी भाषा का गौरवगान ही नहीं, बल्कि एक साहित्यिक घोषणापत्र है जो पाठक को हिंदी पर गर्व करना सिखाती है।
समीक्षा के लेखक:
राम दास गुप्ता, आई पी एम, पी पी एम, दिल्ली (16.9.25)

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