रामचरितमानस–:” पुत्रवती जुवतीजग सोई। रघुपति भगति जासु सुत होई।” – मति अनुरुप– जयन्त प्रसाद
सोनप्रभात- (धर्म ,संस्कृति विशेष लेख)
– जयंत प्रसाद ( प्रधानाचार्य – राजा चण्डोल इंटर कॉलेज, लिलासी/सोनभद्र )
–मति अनुरूप–
ॐ साम्ब शिवाय नम:
श्री हनुमते नमः
जब श्री राम के वन जाने की सूचना श्री लखन लाल जी को मिली तो वे दौड़कर श्री राम के चरणों में लिपट गए और साथ चलने का निवेदन करने लगे। श्रीराम ने अपने वन जाने की नैतिक अनिवार्यता बताते हुए माता-पिता, प्रजा आदि के हित हेतु लक्ष्मण को अयोध्या में ठहरना ही उचित बताया। लक्ष्मण जी ने कहा हे! प्रभु आपने अच्छी शिक्षा दी पर मेरे तो आप ही सर्वस्व है-
गुरु पितु मातु जानउँ काहू। कहउँ सुभाउ नाथ पति पाहू।
लक्ष्मण जी राम से अलग रहकर जीवित नहीं रह सकते, ऐसा जानकर राम ने माता से विदा मांग कर वन साथ चलने की आज्ञा दे दी। लक्ष्मण माता सुमित्रा के पास चल दिए। अभी -अभी तो लखन जी कह रहे थे कि-
“गुरु पितु मातु न जानउँ काहू।” और “मोरे सबहू एक तुम्ह स्वामी” अर्थात आप ही मेरे सब कुछ है, और अभी माँ के पास चल दिए।
शायद एक तो वे राम की आज्ञा टाल नहीं सकते थे, दूसरे लखन जी के पास समय कम था और चाहे जैसे भी हो राम के साथ जाने के लिए कुछ भी कर लेना था, या फिर लक्ष्मण ने व्याकुलता में विचार ही नहीं कर पाया हो। जो भी हो पर आज तो माता सुमित्रा के धैर्य की भी परीक्षा है। सामान्य स्थिति में जो उन्होंने लक्ष्मण को शिक्षा दे रखी है, क्या इस विपत्ति काल में भी उसी पर अडिग है? पर धन्य है मां सुमित्रा , लक्ष्मण के पहुंचते ही मां ने कहा- हे लखन तू मेरे पास माता समझ कर आया है, मेरी शिक्षा भूल गए क्या?
तात तुम्हार मातु वैदेही। पिता रामु सब भांति सनेही।
अर्थात सीता ही तुम्हारी माँ है वही जा। लक्ष्मण के मन में प्रश्न उठा, पिता की आज्ञा से भैया वन जा रहे हैं तो क्या भैया (पिता समान) की आज्ञा से मैं अयोध्या में रहूं? माता सुमित्रा लक्ष्मण के लिए यह भी स्पष्ट कर दी-
“अवध तहॉ जहँ राम निवासू।” अर्थात जहाँ राम का निवास होता है वही स्थान अयोध्या है, यदि हमारे हृदय में राम का वास हो जाये तो हमारा हृदय देश ही अयोध्या है, पर हमारे हृदय में तो राक्षसी प्रवृति का वास है तो यह लंका ही है- ‘लंका निसिचर निकर निवास।’
लक्ष्मण के मन में प्रश्न उठा- क्या मेरे आराध्य के प्रति अपराध करने वाले, वन भेजने वाले को मेरे द्वारा दंड दिया जाना चाहिए? तो मां की शिक्षा में इसका भी उत्तर लखन को सहज ही मिल गया । मां ने कहा राम के वन जाने का कारण कोई और नहीं तू है। मैं ? हां लखन ध्यान से सुन-
तुम्हरेहि भागु राम वन जाहीं। हेतु तात कछु दूसर नाहीं।
अर्थात एक मात्र तुम्हारे लिए ही राम वन जा रहे हैं, तुम्हारा भाग्योदय हो गया जो प्रभु के सेवा का ऐसा अवसर तुम्हें सुलभ हुआ। देखना प्रभु की सेवा में किसी प्रकार की चूक न होने पाए-
राग रोषु इरिषा मद मोहू। जनि सपनेहु इन्हके बस होहू।
अर्थात हे ! लखन तुम सपने में भी राग, रोस, ईर्ष्या, मद और मोह के वश में मत होना और राम की सेवा करना। पर नींद में यह दोष सपने में आ गए तो ? लक्ष्मण ने मन ही मन निश्चय किया, न सोऊंगा न सपने आएंगे और चौदह वर्षों के लिए नींद का परित्याग कर दिया तथा राम की सेवा में लग गए। भरत भी कहते हैं-
अहह धन्य लक्षिमन बड़भागी। राम पदारबिन्द अनुरागी।
और माता भी कहती है-
भूरिभाग भाजन भयउ, तोहिं समेत वलि जाउं।
जौ तुम्हरे मन छाड़ि छल, कीन्ह राम पद ठाँउ।
माता सुमित्रा धन्य है जो अपने पुत्र को श्री राम के चरणों की सेवा में लगाया और जब यह संदेश सुना कि लक्ष्मण जी मूर्छित पड़े हैं तो उनके राम भक्ति की निष्ठा में कोई अंतर नहीं आया और अपने दूसरे पुत्र रिपुसूदन को भी राम की सेवा में भेजने को ठानी तथा सिद्ध कर दिया कि-
पुत्रवती जुवतीजग सोई। रघुपति भगति जासु सुत होई।
नतरु बाँझ भलि वादि वियानी। राम विमुख सुत ते हित हानी।
अर्थात वही माता पुत्रवती कहलाने लायक है, जिसका पुत्र राम भक्त हो । अन्यथा बांझ ही रहना अच्छा है। राम विमुख पुत्र से सदैव अपने हित की ही हानि होती है। वियाना शब्द पशु के लिए आता है। वादि वियानी अर्थात राम विमुख सुत को जन्म देना निरर्थक पशु प्रसव के समान है । ऐसा पुत्र माता के जीवन और यौवन की हानि का कारण मात्र बनता है और ऐसा पुत्र-
सूकर स्वान सृगाल सरिस जड़, जनमत जगत जननि दुःख लागी।
(विनय पत्रिका)
अतः सभी माताओं को जो अपने पुत्र को भगवान में रमता देख संसार मे लगाने के तमाम उपाय करने लगती है, माताओं में श्रेष्ठ माता सुमित्रा के चरित्र से शिक्षा ग्रहण करना चाहिए। उन्हें ही अपना आदर्श मानना चाहिए।
– सियावर राम चन्द्र की जय-
– जयंत प्रसाद
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