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रामचरितमानस –ः “कुलिसहु चाहि कठोर अति, कोमल कुसुमहु चाहि।” –मति अनुरूप– जयंत प्रसाद

सोनप्रभात- (धर्म ,संस्कृति विशेष लेख) 

– जयंत प्रसाद ( प्रधानाचार्य – राजा चण्डोल इंटर कॉलेज, लिलासी/सोनभद्र )

–मति अनुरूप–

ॐ साम्ब शिवाय नम:

श्री हनुमते नमः

 

कुलिसहु चाहि कठोर अति, कोमल कुसुमहु चाहि।
चित्त खगेस राम कहुँ, समुझि परइ कहु काहि।

श्रीरामचरितमानस के साथ ही समस्त भगवत् कथाओं में प्रभु कहीं तो अत्यंत कठोर और कहीं अत्यंत कोमल जान पड़ते हैं, पर प्रभु का यथार्थ स्वभाव कैसा है, यह समझ से परे है। सच तो यह है कि जिसकी समझने की शक्ति जितनी है या जैसी है प्रभु वैसे ही प्रतीत होते हैं।

जाकी रही भावना जैसी। प्रभु मूरत तिन्ह देखी तैसी।

प्रभु की रूप, गुण, लीला, धाम की तरह सब कुछ, स्वभाव भी का कोई पार नहीं पा सकता। इसी कारण ईश्वर को “अनंत” कहा गया है। यदि ईश्वर के किसी भी पक्ष का अन्त कोई भी ज्ञात कर ले तो प्रभु अनंत कहां? इसी कारण मानस कार ने प्रभु के स्वभाव को संदेह सूचक ही सूचित किया है।

भगवान की लीलाओं में उनका कोमल स्वभाव यत्र तत्र सर्वत्र लक्षित होता रहता है, पर कहीं-कहीं कठोरता भी लक्षित होता है यथा–

कोमल चित अति दीन दयाला। कारन रहित दयाल कृपाला।
कोमल चित दयाल रघुराई। बेगि पाइहहिं पीर पराई।

अर्थात् प्रभु अकारण दयालु है और दूसरे की पीड़ा से शीघ्र ही द्रवित हो जाते हैं, पर अपने भक्त द्रोहियों के लिए प्रभु इतने कठोर हो जाते हैं कि भक्त सुग्रीव के द्रोही बालि के लिए यह प्रतिज्ञा कर लेते हैं –

सुनु सुग्रीव मारिहउँ, बालिहिं एकहिं बान।
व्रह्म रूद्र सरनागत, गये न उबरहिं प्रान।

उपर्युक्त दोहा (कुलिसहु चाहि ………………… कहु काहि।)  राम राज्याभिषेक पश्चात अंगद के विदाई का प्रसंग है, जिसमें प्रभु कठोर लग रहे हैं, पर कठोर हैं नहीं। वरन भक्त के हितार्थ कठोरता अपनाई है। बालि ने बड़ी चतुराई से अपनी मृत्यु के पश्चात किष्किंधा का राज्य अपने पुत्र अंगद के लिए सुरक्षित करने हेतु ही उन्हें राम के गोद में डाल रखा है और प्रभु ने भी अंगद को युवराज बनाया है।अब अंगद प्रभु की सेवा में सब कुछ त्याग कर रहना चाहते हैं इसी कारण प्रभु कठोरता पूर्वक उनकी विदाई कर देते हैं। प्रभु ने इस समय वैसे ही कठोरता अपनाई है जैसे मां पुत्र की स्वास्थ्य के लिए उसकी पीड़ा को ध्यान न देकर कठोरता पूर्वक उसके फोड़ा को चीर देती या चिरवा देती है।

इसी प्रकार प्रभु की कठोरता में भक्तों का कल्याण ही नीहित है, चाहे नारद के प्रति कठोरता हो या फिर सोते हुए अवध वासियों को छोड़ वन जाने की कठोरता।

अस्तु अपने भक्तों के हित हेतु प्रभु ऊपर से कठोरता का व्यवहार करते हैं ताकि भक्तों के कष्टों का निवारण हो सके या भक्त उचित दिशा की ओर अग्रसर हो सके। अतः प्रभु का स्वभाव कैसा है, हम अनुमान ही कर सकते हैं–

जो सम्पति दससीस अरपि कर रावन सिव पहिं लीन्ही। 
सो सम्पदा विभीषनहिं अति सकुच सहित प्रभु दीन्ही।
जो सम्पति सिव रावनहिं, दीन्हि दिए दस माथ। 
सो सम्पदा विभीषनहिं,सकुचि दीन्ह रघुनाथ।

प्रभु का स्वभाव चाहे जो हो हमारे हित में ही है–

कुलिसहु चाहि कठोर अति, कोमल कुसुमहु चाहि।
चित्त खगेस राम कहुँ, समुझि परइ कहु काहि।

 

सियावर रामचंद्र की जय

–जयंत प्रसाद

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पूर्व प्रकाशित रामचरितमानस अंक – मति अनुरूप– 

रामचरितमानस -: “रहत न प्रभु चित चूक किए की। करत सुरति सय बार हिए की।”- मति अनुरूप- जयंत प्रसाद

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