रामचरितमानस -: “तापर रुचिर मृदुल मृग छाला। तेहि आसन आसीन कृपाला।”- मति अनुरुप- अंक 31. जयंत प्रसाद

सोनप्रभात- (धर्म ,संस्कृति विशेष लेख)
– जयंत प्रसाद ( प्रधानाचार्य – राजा चण्डोल इंटर कॉलेज, लिलासी/सोनभद्र )
–मति अनुरूप–
ॐ साम्ब शिवाय नम:
श्री हनुमते नमः
तापर रुचिर मृदुल मृग छाला।तेहि आसन आसीन कृपाला।
अपने पिछले अंक में हमने चर्चा की कि सुबेल पर्वत पर लक्ष्मण ने अपने हाथ से प्रभु के आसन लगाए उस पर कोमल पत्ते बिछाए, फिर उस पर फूल बिछाया गया तथा उस पर सबसे ऊपर कोमल मृगछाला बिछा कर प्रभु को आसीन कराया। मृगचर्म लक्ष्मण जी को कहां से मिली इसका कोई प्रमाण मानस में नहीं मिलता। पर गीतावली में इसका संकेत मिलता है कि मारीच को मारकर श्री जानकी जी की अभिलाषानुसार यथा-
सत्य सन्ध प्रभु बध करि एही। आनहु चर्म कहति बैदेही।
स्वर्ण मृगचर्म को लक्ष्मण जी ने साथ लाया था, पर सीता जी आश्रम में नहीं मिली। अब सीता जी की खोज के समय भी लक्ष्मण जी ने उसे साथ छिपा कर रख लिया ताकि जब भी सीता जी मिलें तो उन्हें यह भेंट किया जा सके। परंतु जब ऋष्यमूक पर्वत पर सुग्रीव जी ने श्रीराम को सीता जी के वस्त्राभूषण दिखाए तो राम अत्यंत सोचमग्न हो गये-
मांगा राम तुरत तेहि दीन्हा। पट उस लाइ सोच अति कीन्हा।
इसी कारण लक्ष्मण जी ने उस मृगचर्म को छिपाकर रखा कि इसे देख सीता जी की याद में प्रभु और भी व्याकुल न हो जाएं।
यहां यह शंका स्वाभाविक है कि मारीच तो अंततः अपने शरीर में प्रकट हो गया था – यथा –
‘प्रान तजत प्रगटेसि निउन देहा।’
फिर मृगछाला कहां से आयी? वस्तुतः गीतावली में यह संकेत है कि प्रभु ने अपनी सत्ता से उसे सत्य कर लिया था। विचारणीय है यदि मृग चर्म नहीं मिला होता तो उसकी चर्चा दोनों भाइयों के बीच अवश्य हुई होती कि इस उद्यम के बाद भी सीता के लिए मृगचर्म नहीं मिला, अब सीता को क्या देंगे? अतः यह प्रतीत होता है कि मृगछाला अवश्य मिली थी और इसी को अब श्रीराम के आसन पर बिछा दिया ताकि प्रभु को सीता जी के लिए व्याकुलता बनी रहे और युद्ध कर सीता जी को प्राप्त करने में कोई विलम्ब न हो अन्यथा कौन ठिकाना प्रभु के अब तक अनेक लीलाओं के कारण सीता तक पहुंचने में अधिक देर हो चुकी है, कहीं कोई और लीला शुरू न हो जाए जो लक्ष्मण के लिए अत्यधिक दुखदायी था।
इसी कारण लक्ष्मण जी ने प्रभु के आसन के रूप में सबसे ऊपर मृग चर्म को स्थापित कर दिया। जिससे उनकी विरह व्याकुलता और बढ़ गया क्योंकि वह चर्म कोमल है तथा विरही लोगों को सुख के साधन और भी अधिक पीड़ित करते हैं।इसी कारण लखन जी ने अत्यंत सुख का आसन तैयार किया।
कोमल पत्ते, सुमन और कोमल मृग चर्म-
तापर रुचिर मृदुल मृग छाला।तेहि आसन आसीन कृपाला।
जय जय श्री सीताराम
-जयंत प्रसाद