रामचरितमानस-: “बहुविधि खल सीतहि समुझावा। साम दान भय भेद देखावा।“- मति अनुरुप- अंक 39. जयंत प्रसाद
सोनप्रभात- (धर्म ,संस्कृति विशेष लेख)
– जयंत प्रसाद ( प्रधानाचार्य – राजा चण्डोल इंटर कॉलेज, लिलासी/सोनभद्र )
–मति अनुरूप–
ॐ साम्ब शिवाय नम:
श्री हनुमते नमः
अपने पिछले अंक में मैंने यह समझने की कोशिश की कि रावण अंत तक यह निश्चय नहीं कर सका कि राम नारायण हैं। कुछ रामायणी तो यहां तक कहते हैं कि रावण ने राम को नारायण और श्री सीता जी को लक्ष्मी के रूप में जान लिया था, इस कारण वह– “मन महुँ चरन बंदि सुख माना” और इसी कारण वह सीता को हाथ नहीं लगाया वरन् उस स्थान की भूमि सहित ही सीता को उठा लिया, पर इसका उल्लेख मुझे कहीं नहीं मिला और मेरी छोटी मति इसे स्वीकार नहीं कर पाती।
यदि रावण सीता को लक्ष्मी समझ लिया होता तो दुष्टता की भाषा क्यों बोलता? सीता जी स्वयं कहती हैं–
कह सीता सुनु जती गोसाईं। बोलेहु बचन दुष्ट की नाईं।
रावण ने निश्चय ही कुछ वासना युक्त बातें कही तभी तो सीता जी ने कहा कि एक तुच्छ खरगोश सिंहनी की चाह कर रहा है, यथा–
“जिमि हरिवधुहिं छुद्र सस चाहा।” और
“पुरोडास चह रासभ खावा।”
अर्थात् यज्ञान्न को गदहा खाना चाहता है। यदि रावण सीता जी को लक्ष्मी मानता तो – “साम दान भय भेद देखावा” अर्थात् साम दान दंड और भेद का प्रयोग सीता जी के लिए क्यों करता? रावण ने सीता जी पर क्रोध भी किया– “क्रोधवंत तव रावन, लीन्हेसि रथ बैठाइ।” इस कारण भी स्पष्ट है कि रावण सीता जी को एक साधारण रूपवती नारी ही मानता था।
रावण सीता जी को साधारण लौकिक नारी समझ अपनी रानी बनाने का बहुत प्रयत्न किया, पर बात नहीं बनी और समझा कर हार गया तो अशोक वाटिका में पहरे पर रख छोड़ा। यथा –
हारि परा खल बहुविधि, भय अरू प्रति देखाइ।
तब असोक पादप तर, राखिसि जतन कराइ।
रावण यदि सीता जी को लक्ष्मी समझता तो महल में निवास कराता पर साधारण स्त्री समझ अशोक वृक्ष के नीचे यातना में रखा ताकि वह रावण का प्रस्ताव दुख से बेहाल होकर स्वीकार कर ले। रावण सीता जी के साथ बलात्कार नहीं कर सकता था क्योंकि उसे शाप था कि वह किसी नारी से बलात्कार नहीं कर सकता था, इसी कारण व सीता को अपने शयनकक्ष में रखने में भयभीत हुआ और अशोक वृक्ष के नीचे अशोक वाटिका में ठहराया।
अशोक वाटिका में अन्ततः रावण ने साम दान भय और भेद दिखाते हुए अपना बनाने की चेष्टा की–
बहुविधि खल सीतहि समुझावा। साम दान भय भेद देखावा।
कह रावन सुनु सुमुखि सयानी। मंदोदरी आदि सब रानी।
तव अनुचरी करौं पन मोरा। एक वार विलोकु मम ओरा।
इस पर भी बात नहीं बनी तो वह सीता जी को मारने दौड़ा– “सुनत बचन पुनि मारन धावा।” सीता जी को पराम्बा समझता तो ऐसा न करता। कुछ रामायणी कहते हैं कि “एक बार विलोकु मम ओरा।” कहकर रावण श्री सीता जी को पराम्बा मान उनकी कृपा दृष्टि की याचना कर रहा है, पर मेरे विचार से ऐसा नहीं है। न ही यह मानस सम्मत ही जान पड़ता है।
जय जय श्री सीताराम
-जयंत प्रसाद
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रामचरितमानस-: “सुनत बचन दससीस रिसाना। मन महु चरन बन्दि सुख माना।“- मति अनुरुप- अंक 38. जयंत प्रसाद
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