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रामचरित मानस -: ‘राम कवन प्रभु पूछउं तोही’ – मति अनुरूप – जयंत प्रसाद

सोनप्रभात- (धर्म ,संस्कृति विशेष लेख) 

– जयंत प्रसाद ( प्रधानाचार्य – राजा चन्डोल इंटर कॉलेज, लिलासी/सोनभद्र )

ॐ साम्ब शिवाय नम:

–मति अनुरूप–

‘राम कवन प्रभु पूछउं तोही’ – श्री रामचन्द्र जी कौन है, यदि कोई यह बता सके तो उनका नाम ‘अनन्त‘ झूठा सिद्ध हो जाएगा। चूंकि ईश्वर का रूप , लीला, गुण, धाम, नाम आदि का अंत ही नही, इसी कारण इनका नाम ‘अनन्त’ है। अस्तु अनेक सन्तों ने भगवान को नाना रूपों में वर्णन किया और अंत मे ‘नेति’ कहा – ‘नेति नेति कहि बेद बखाना’– जाहिन जानत बेद।

अतः राम कवन के अनंत समुद्र की एक बूंद यहां प्रस्तुत है–

रामचरितमानस में गोस्वामी जी ने राम को उस परात्पर निर्गुण व्रह्म का सगुण अवतार बताया है–

“उपजहि जासु अंस ते नाना, सम्भु विरंचि विष्नु भगवाना।”

फिर वह निर्गुण व्रह्म जो – ” विनु पग चलइ सुनइ विनु काना, कर विनु कर्म करइ विधि नाना।।”

आनन रहित सकल रस भोगी। विनु वानी बकता बड़ जोगी।।

तन विनु परस नयन विनु देखा। ग्रहइ घ्रान विनु बास असेषा।।

सगुण रूप धारण क्यों किया?  – “हरि अवतार हेतु जेहि होई, इदमिथम् कहि जाईं न सोई।”
और तुलसी ने अवतार रूप सगुण व्रह्म का पक्ष क्यो चुना ?

शायद ‘स्वान्तः सुखाय’ अपनी रुचि के अनुरूप तथा साधना की सरलता के कारण ही इनको सगुण व्रह्म का पक्ष अधिक भाया।

जैसे सूरदास जी कहते हैं-  “अविगत गति कछु कहत न आवै।”

रूप रेख गुन जाति जुगुति विनु निरालम्बित कित धावै,
सब विधि अगम विचारहिं ताते सुर सगुन पद गावै।

अस्तु सिद्ध है, कि राम उसी परात्पर (निर्गुण) ब्रह्म के ही सगुण अवतार हैं। राम का अवतार हुआ क्यों ? ईश्वर ने राम रूप में जन्म क्यों लिया? –  “रामजन्म कर हेतु अनेका।” अर्थात रामावतार के हेतु एक से बढ़कर एक, अनेक हैं। पर–  ‘जनम एक दुई कहउॅ बखानी’–  और मानस में–  दो कारणों का वर्णन विस्तार से किया गया।

प्रथमत: नारद मुनि के शाप के कारण और दूसरा मनु शतरूपा की तपस्या । प्रथम, भक्त नारद के शाप के कारण जो प्रभु का अवतार हुआ, वह श्रीराम के जीवन काल का उत्तरार्ध लीला का मुख्यत: कारण बना।

यथा–  बंचेहु मोहिं जवन धरि देहा।

     सोइ तनु धरहु साप मम एहा।।”

“करिहहिं कीस सहाय तुम्हारी। और नारि विरह तुम्ह होब दुखारी।।”

अर्थात इस शाप से ईश्वर ने नर तन धारण किया – सीता हरण,  राम के विरह में दुखी होने का कारण बना और नारी विरह में इस सीमा तक दुखी होना की रावण जैसे पराक्रमी से रार ठान लेना और रावण का अंत किया । इस प्रकार नारद का शाप राम के उत्तरार्ध (लीला)  का आधार बना।

मनु- शतरूपा की तपस्या ईश्वर के बाल लीला पूर्वार्ध का आधार बना या ईश्वर का अवतार ही इसका मूल है, यथा – “चाहउं तुम्हहि समान सुत”–  जिस के उत्तर में गगनवाणी हुई–  “आपु सरिस कहॅ खाेजौ जाई, नृप तव तनय होब मै आई।”

अंसन्ह सहित मनुज अवतारा, लेइहउं दिनकर वंस उदारा।

आदिशक्ति जेहि जग उपजाया, सोउ अवतरहिं मोर यह माया।।

अर्थात इस वरदान से अवतार व ईश्वर का अंशावतार ही प्रमुख है। इसमें (वरदान में)  ईश्वर का अवतार मुख्य है और लीला गौड़ जबकि नारद का शाप ईश्वर की लीला का मुख्य कारण बना तो अवतार गौड़ है।

अब भगवान का जीवन का पूर्वार्ध अर्थात अवतार व बाल लीला आदि वरदान के कारण थे। ईश्वर का उत्तरार्ध (जीवन) का कारण नारद के शाप पर आधारित है।  मनु शतरूपा के वरदान के कारण तथा दूसरी तरफ नारद के शाप के कारण ईश्वर का अवतार हुआ–

  एक शाप दूसरा वरदान।  वरदान की प्रकृति कल्याणकारी, शांति तथा मधुर है, इसी कारण यह वरदान प्रभु के माधुरी लीला का निमित्त बना (अवतार, बाल लीला आदि) जबकि शाप की प्रकृति विनाशक और क्रोध आदि तमोगुण प्रधान होता है। इसी कारण यह भगवान के रौद्रादि  लीला का प्रमुखत: कारण बना। जिसके द्वारा रावण आदि का अंत हुआ ।

अब ध्यान देने योग्य बात यह है, कि नारद शाप का वर्णन जो भगवान के उत्तरार्ध लीला का आधार है, गोस्वामी जी ने पहले और मनु शतरूपा के वरदान का वर्णन जो रामलीला का पूर्वार्ध का आधार है बाद में किया।  कारण क्या ?मेरी छोटी मति के अनुसार भगवान के अवतार से अधिक महत्वपूर्ण इस कलिकाल में उनकी लीला है – ‘भक्त हेतु लीला तनु गहई  ‘ यहां भी लीला प्रथम है।  “कलप–कलप प्रति प्रभु अवतरही”  हर कल्प में प्रभु का अवतार होता है, क्यों ?  भक्तों के लिए। लीला करते हैं क्यों?  भक्त और भक्ति के लिए यहां भी लीला अधिक सबल प्रतीत होती है।  भगवान लीला करते हैं इसके पीछे मुझे मात्र भक्तों के कल्याण का उद्देश्य लक्षित होता है ।

“गाइ राम गुन गन विमल भव तर बिनहिं प्रयास” 

यहां भी लीला की गणना प्रथम है, अवतार मुख्यतः भक्तों के लिए (उधार, रक्षा आदि के लिए)  और लीला भक्त और भक्ति दोनों के लिए।

मूल प्रश्न –  “राम कवन प्रभु पूछउं तोहीं”  यहां मनु शतरूपा का प्रसंग उल्लेखनीय है – मनु ने भगवत प्राप्ति हेतु विषयों से वैराग्य और भक्ति की चिंता की।यथा–

  ” होई न विषय विराग, भवन बसत भा चौथपन।  हृदय बहुत दुख लाग, जनम गयउ हरि भगति बिनु।।”   

तपस्या क्यों ? भक्ति के लिए – ईश्वर प्राप्ति का क्रम है – विषयों से वैराग्य हेतु तीर्थों में जाना, सत्संग करना, तीर्थाटन, जप और तपस्या ।

यथा– 

  •  तीरथ वर नैमिष विख्याता।
  • बसहिं  तहां मुनि सिद्ध समाजा।
  • जहं-जहं तीरथ रहे सुहाय।

मुनिन्ह सकल सादर करवाए

  • द्वादश अक्षर मंत्र पुनि जपहिं सहित अनुराग–

इस प्रकार सदाचारी मनु 23000 वर्ष तक तपस्या किया तो–

“विधि हरि हर तप देखि अपारा, मनु समीप आए बहु बारा।

मांगहु वर बहु भांति लोभाए, परमधीर नहिं चलहि चलाए।।” 

ब्रह्मा विष्णु महेश आए,  लुभाया पर वे टस से मस नहीं हुए। आखिर मनु किसे खोज रहे थे–  तपस्या के पीछे अभिलाषा क्या थी?

“अगुन अखंड अनंत अनादि–चितवहिं जेहि परमारथ वादी।

संभु विरंचि विष्नु भगवाना– उपजहि  जासु अंस ते नाना।।”

अर्थात्  तपस्या परम् प्रभु के लिए– पर आये परम प्रभु के अंश।  इसी कारण –“परमधीर नहिं चलहिं चलाए”।  वही परम प्रभु के द्वारा जब गगनवाणी हुई–  तो,

श्रवण सुधासम बचन सुनि ,पुलक प्रफुल्लित गात।

 बोले मनु करि दंडवत, प्रेम न हृदय समात।।     

और मनु शतरूपा ने वर मांगा।  भगवान ने अंशो सहित अवतार का वरदान दिया और अपने अंशो के रूप में भरत, शत्रुघ्न और लक्ष्मण के साथ अवतार लिया।

विष्णु, ब्रह्मा तथा शिव उस परात्पर ब्रह्म के अंश हैं,  जो अनंत लोकों और भुवनों में पालन तथा सृजन और हरण के लिए व्यवस्थित हैं। इन्हीं अंशो के साथ परम प्रभु का अवतार हुआ।

यथा –

  • “विश्व भरण पोषण कर जोई–  ताकर नाम भरत अस होई” – ( पालनकर्ता– विष्णु)
  • “जाके सुमिरन ते रिपुनासा नाम शत्रुघ्न वेद प्रकाशा” – (वेदों को प्रकाशित करने वाले– ब्रह्मा)
  • “लक्षनधाम राम प्रिय, सकल जगत आधार” –  (लक्षणधाम, जगदाधार, राम बल्लभ– शिव)

            ॐ साम्ब शिवाय नम:                                                                                                                                                                   – जयन्त प्रसाद

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