रामचरितमानस–: “सेवक स्वामि सखा सिय पी के” – मति अनुरुप– जयन्त प्रसाद
सोनप्रभात- (धर्म ,संस्कृति विशेष लेख)
– जयंत प्रसाद ( प्रधानाचार्य – राजा चण्डोल इंटर कॉलेज, लिलासी/सोनभद्र )
–मति अनुरूप–
ॐ साम्ब शिवाय नम:
श्री हनुमते नमः
“सेवक स्वामि सखा सिय पी के”
मति अनुरुप के अपने प्रथम अंक (25 जुलाई 2020) में हमने शिव जी को ईश्वर का अंश बताया, पर रामेश्वरम् की स्थापना के परिपेक्ष्य में तो शिवजी राम के स्वामी हैं। –
” लिंग थापि विधिवत करि पूजा। शिव समान प्रिय मोहिं न दूजा।”
पर वस्तुतः दोनों में क्या संबंध है, आइए इस अंक में इसी पर विचार करते हैं–
श्री रामचरितमानस में ” सेवक स्वामि सखा सिय पी के ” इस पंक्ति से श्रीराम के साथ शिवजी के तीन संबंध प्रकट हो रहे हैं– शिवजी राम के सेवक, स्वामी और सखा हैं। सेवक कैसे ?
परात्पर ब्रह्म के नरावतार होने के कारण राम शिवजी के स्वामी और शिवजी सेवक हैं। इसका उल्लेख मानस में मानसकार ने कई बार शिव के मुख से ही कराया। यथा–
हृदय विचारत जात हर, केहि विधि दरसन होइ।
गुप्त रूप अवतरेउ प्रभु, गएँ जान सब कोइ।।
जय सच्चिदानन्द जग पावन। अस कहि चले मनोज नसावन।।
सोइ मम इष्टदेव रघुवीरा। सेवत जाहि सदा मुनि धीरा।।
सोइ प्रभु मोर चराचर स्वामी। रघुवर सब उर अंतरजामी।। आदि,
इस प्रकार शिव जी ने स्वयं राम को अपना स्वामी माना और फिर– “संभु गिरा पुनि मृषा न होई”
अतः इस प्रकार शिवजी राम के सेवक हैं। पर स्वामी?
परम प्रभु लीला काल में राम के रूप में नर लीला कर रहे हैं, नर की तरह आचरण कर रहे हैं। यथा–
“नर इव चरित करत रघुराई।” इस प्रकार दशरथ नंदन श्री राम, शिव जी को अपना स्वामी मान रहे हैं। जो उचित भी है, क्योंकि– ” जस काछ्यि तस चाहिय नाचा।” अर्थात जैसा रुप धारण करे वैसा आचरण भी करना चाहिए।
इसी कारण – लिंग थापि विधिवत करि पूजा। सिव समान प्रिय मोहिं न दूजा।।
तथा
” पूजि पारथिउ नायउ माथा।”
इस प्रकार श्रीराम ने शिवलिंग की स्थापना, पूजा, शिर झुकाकर और उसका महात्म्य वर्णन कर शिव को अपना स्वामी सिद्ध कर दिया। और सखा कैसे?
श्री रामचरितमानस में शिव जी के द्वारा राम को अपना स्वामी माना गया और राम के द्वारा शिव को अपना स्वामी होने का अनेकों स्थान पर भान कराया गया, जिससे वैष्णव और शैव अर्थात रामभक्त और शिवभक्त एक– दूसरे को बराबर या राम और शिव को सखा मानकर आपस में प्रीति पूर्वक अपने–अपने आराध्य की भक्ति कर सकें। मानस में राम के द्वारा यह घोषणा है कि–
शंकर प्रिय मम द्रोही, शिव द्रोही मम दास
ते नर करहि कलप भरि, घोर नरक महुँ बास।
जिस पर शिवजी की कृपा नहीं होती उसे मेरी भक्ति नहीं मिलती यथा–
जेहि पर कृपा न करहिं पुरारी। सो न पाव मुनि भगति हमारी।।
आदि, अतः इस प्रकार राम और शिव सखा रूप में लक्षित हो रहे हैं।
जब श्री राम जी ने सेतुबंध के पश्चात शिवलिंग की स्थापना की तो उसे रामेश्वर महादेव का नाम दिया। जब राम जी से रामेश्वर का अर्थ पूछा गया तो उन्होंने कहा– ” रामस्य ईश्वर: य: स: रामेश्वर: ” अर्थात जो राम का ईश्वर (स्वामी) है वह रामेश्वर। परंतु जब शिवजी ने रामेश्वर की व्याख्या की तो अर्थ उलट गया। शिव जी ने रामेश्वर की व्याख्या करते हुए कहा कि – “राम: यस्य ईश्वर: स: रामेश्वर:” अर्थात राम जिसके ईश्वर (स्वामी) हैं, वहीं रामेश्वर।
कहा जाता है, कि जब राम ने शिवलिंग की स्थापना कर, शिव को अपना स्वामी घोषित किया तो शिवलिंग से आवाज निकल पड़ी– ” राम: एव ईश्वरो यस्य स: “ अर्थात राम ही जिसके ईश्वर हैं, वही रामेश्वर और राम जी मुस्कुराने लगे। इन्हीं भावों को व्यक्त करने हेतु मानस में तुलसी जी ने कहा–
“सेवक स्वामि सखा सिय पी के”
– सियावर रामचंद्र की जय–
– जयन्त प्रसाद
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