रामचरितमानस-: कपि के ममता पूँछ पर, सबहिं कहउं समुझाइ।तेल बोरि पट बाँधि पुनि, पावक देहु लगाइ। – मति अनुरुप- अंक 44. जयंत प्रसाद
सोन प्रभात – (धर्म, संस्कृति विशेष लेख) रामचरितमानस
– जयंत प्रसाद (प्रधानाचार्य – राजा चंडोल इंटर कॉलेज, लिलासी/ सोनभद्र)
-मति अनुरुप-
ॐ साम्ब शिवाय नमः
ॐ श्री हनुमते नमः
कपि के ममता पूँछ पर, सबहिं कहउं समुझाइ।
तेल बोरि पट बाँधि पुनि, पावक देहु लगाइ।
यह प्रसंग सुंदरकांड के लंका दहन की भूमिका प्रसंग है – प्रश्न यह है कि हनुमान जी ने सीता का पता लगाया, अशोक वाटिका उजाड़ा और जब मेघनाद द्वारा बांधकर रावण के समक्ष उन्हें लाया गया तो रावण ने हनुमान की हत्या करने की आदेश दी, फिर अंग भंग करने की बात कही और अंततः पूँछ में आग लगाने की बात आ गयी। यथा –
– सुनि कपि बचन बहुत खिसियाना। बेगि न हरहु मूढ़ कर प्राना।
– सुनत बिहसि बोला दसकंधर।अंग भंग करि पठइय बंदर।
और
कपि के ममता पूँछ पर, सबहिं कहउं समुझाइ।
तेल बोरि पट बाँधि पुनि, पावक देहु लगाइ।
यह सब कैसे हुआ? आइए इसी पर विचार करते हैं। जब हनुमान जी ने अशोक वाटिका का फल खाया और पेड़ों को उखाड़ कर वाटिका उजाड़ने लगे तो रखवालो ने उन्हें मना की। हनुमान जी ने रखवालों को मारा, वे जाकर रावण को सूचना दिए, रावण ने विशाल राक्षसी सेना भेंजी पर उनका भी संहार हुआ फिर रावण ने अक्षय कुमार को भेजा और वह भी मारा गया। अंततः मेघनाद को भेजा गया और वह हनुमान जी को ब्रह्मवाण प्रहार कर, नागपाश में बांधकर रावण के समक्ष प्रस्तुत किया। यह सोंच कर कि वह बलशाली वानर जिसने सेना सहित अक्षय कुमार का संहार किया, वह बांध लिया गया – रावण हर्षित हुआ और हनुमान को बुरा- भला कहने लगा परंतु ज्योही अपने पुत्र अक्षय कुमार की मृत्यु की याद आयी वह दुखी हो गया।
यथा –
कपिहि विलोकी दसानन, बिहंसा कहि दुर्वाद।
सुत बध सुरति कीन्ह पुनि, उपजा हृदय विषाद।
रावण ने क्रोधित हो अपने पुत्र अक्षय कुमार और राक्षसी सेना की हत्या का बदला लेने हेतु, हनुमान का बध करने की आज्ञा दी – “बेगि न हरहु मूढ़ कर प्राना।” परंतु उसी समय अन्य मंत्रियों के साथ (हो सकता था कि अकेले विभीषण की बात रावण ना मानता) विभीषण जी आकर रावण के उस आज्ञा को नीति विरुद्ध कहा, जिसका अन्य लोगों ने भी अनुमोदन किया और हत्या के अलावा कोई और अन्य दंड देने का सुझाव दिया। रावण मान गया और कोई अन्य दंड के बारे में सोचने लगा तो उसे अपने बहन शूर्पणखा के नाक-कान काटने की घटना याद आयी तो सोचा क्यों न इसका भी अंग- भंग कर जैसे को तैसा बदला लेकर, जैसे शूर्पणखा मेरे पास भेजी गयी थी, उसी प्रकार इसे भी इसके स्वामी के पास भेजा जाय। अतः अब रावण ने अंग -भंग कर भेजने का दंड सुनाया – “अंग भंग करि पठवहु बंदर।”
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हनुमान जी को श्री राम कृपा और सीता मां के आशीर्वाद का विश्वास था, अतः भगवान क्या करने वाले हैं ? हनुमान जी मन ही मन श्री राम सीता का स्मरण कर श्री सरस्वती जी से प्रार्थना की कि हे माँ रावण की मति में बैठकर कुछ ऐसा कर जिससे भगवान की लीला उचित दिशा में जाय। और यह दिखाने के लिए की मेरे नाक कान पर से रावण का ध्यान हट जाय वे पूँछ को बचाने का नाटक, चूमने और सहलाने लगे अर्थात श्री हनुमान जी रावण को भ्रमित करने के लिए यह बनावटी संकेत देने लगे कि मेरा सबसे महत्वपूर्ण अंग पूँछ ही है, और इसी पर मेरी अधिक ममता है। उधर मां शारदा की प्रेरणा से रावण सोचने लगा इस वानर की ममता तो पूँछ पर है और इसे सेवक राक्षस शायद नहीं समझ पा रहे हैं।
यथार्थतः किसी वानर की पूछ (महत्ता) तो उसके पूँछ के कारण ही होती है, पूँछ हीन वानर अपना संतुलन खो देता है। न वह संतुलित चल सकता है, न दौड़ सकता है, उछलने, पेड़ पर चढ़ने, बैठने आदि में तो ही पूँछ ही मुख्य सहायक एवं संतुलक है। पूँछ के अभाव में तो वानर अपना अस्तित्व ही खो बैठता है। वैसे भी बिना मुझसे पूछे (अनुमति बिना) अशोक वाटिका में प्रवेश किया है और पूँछ की ताकत से ही इसने अनेक राक्षसो का वध किया है, अतः इसे निपुंछा ही किया जाना चाहिए।
‘राधेश्याम रामायण’ में वर्णित है, रावण कहता है –
“बेपूछे पूछ घुमा कपि ने, उद्यान उजाड़ा सारा है|
अतएव निपूछां करो इसे, अब यह आदेश हमारा है||”
कुछ मींज दिए, कुछ खूंद दिए, कुछ पेड़ गिराकर दबादिए|
कुछ पकड़ सिन्धु में फेंक दिए, कुछ बाँध पूंछ में घुमा दिए||
अंततः मां शारदा की प्रेरणा से रावण ने पुनः सुनाया-
कपि के ममता पूँछ पर, सबहिं कहउं समुझाइ।
तेल बोरि पट बाँधि पुनि, पावक देहु लगाइ।
ऐसा आदेश सुनकर हनुमान जी मुस्कुराने लगे और समझ गए कि मेरी प्रार्थना मां शारदा स्वीकार कर मेरी सहायक हो रही हैं। यथा-
“बचन सुनत कपि मन मुसुकाना। भइ सहाय सारद में जाना।”
अब भगवान की कृपा और मां शारदा की प्रेरणा से श्री हनुमान जी ने मन ही मन योजना बना डाली कि अपनी पूंछ बढ़ाकर लंका को घी तेल और वस्तु से विहीन कर दिया जाय और वही किया। यथा –
” रहा न नगर वसन घृत तेला। बाढ़ी पूँछ कीन्ह कपि खेला। “
घी, तेल के अभाव में राक्षसों के लिए स्वास्थ्यप्रद भोजन का भी अभाव हो गया तथा घी, तेल के अभाव में स्वाद विहीन भोजन मिलने से उनकी खुराक कम हो गयी और उनका बल क्षीण होने लगा। वस्तु कम होने पर राक्षस राक्षसियो में एक दूसरे को देखकर वासना अधिकाधिक जागृत हो गयी, जिस कारण वे युद्धाभ्यास आदि में कम समय देने लगे और धीरे-धीरे उनका बल क्षीण होने लगा। इस प्रकार श्री हनुमान जी की लंका दहन की लीला भी आसानी से संपन्न हो गयी। लंका दहन कर श्री हनुमान जी ने रावण सहित समस्त राक्षसों को यह सीख देने का प्रयास किया कि राम जी का शरण ही सर्वश्रेयस्कर है, इस प्रकार श्री विभीषण जी को श्री राम महिमा से अवगत करा कर उन्हें राम के शरण में जाने को प्रेरित किया। साथ ही श्री सीता जी को सांत्वना भी प्रदान की। इस प्रकार रावण ने हनुमान के लिए मृत्युदंड, फिर अंग भंग करने का दंड और अंत में पूँछ जलाने का दंड सुनाया –
कपि के ममता पूँछ पर, सबहिं कहउं समुझाइ।
तेल बोरि पट बाँधि पुनि, पावक देहु लगाइ।
– सियावर रामचंद्र की जय-
-जयंत प्रसाद
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