Chhath Puja 2024: हिंदू धर्म का सबसे बड़ा त्यौहार छठ महापर्व कार्तिक शुक्ल पक्ष के षष्ठी को मनाया जाता है। सूर्य उपासना का यह अनुपम लोक पर्व मुख्य रूप से बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल, पूर्वी उत्तर प्रदेश और नेपाल के कुछ हिस्सों में मनाया जाता है कहा जाता है कि यह मैथिली, मगही और भोजपुरी लोगों का छठ पूजा सबसे बड़ा पर्व है। यह उनकी संस्कृति है छत पर वी बिहार में बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। पूरे भारत का एकमात्र पर्व है जो वैदिक काल से चला रहा है और अब तो बिहार और उत्तर प्रदेश के साथ पूरे भारत का संस्कृति बन चुका है। बिहार के वैदिक आर्य संस्कृति की एक छोटी सी झलक दिखाता है। यह पर्व ऋग्वेद में वर्णित और पूजन एवं उषा पूजन तथा आर्य परंपरा के अनुसार मनाया जाता है।
बिहार में हिंदुओं द्वारा मनाया जाने वाला इस पर को इस्लाम सहित अन्य धर्मावलंबी भी मानते देखे जाते हैं। धीरे-धीरे त्यौहार प्रवासी भारतीयों के साथ-साथ विश्व भर में प्रचलित हो गया है। छठ पूजा सूर्य प्रकृति जल वायु और उनकी बहन छठी मैया को समर्पित है ताकि उन्हें पृथ्वी पर जीवन की देवताओं को बहाल करने के लिए धन्यवाद, छठी मैया जिसे मिथिला में रनबे माय भी कहा जाता है। भोजपुरी में सावित्री माई और बंगाली में रनबे ठाकुर बुलाया जाता है। पार्वती का छठा रूप सूर्य भगवान की बहन छठी मैया को त्यौहार की देवी के रूप में पूजा जाता है। यह चंद्र के छठे दिन काली पूजा के 6 दिन बाद छठ मनाया जाता है। मिथिला में छठ के दौरान मैथिली महिलाएं, मैथिला की शुद्ध पारंपरिक संस्कृति को दर्शाने के लिए बिना सिलाई के शुद्ध सूती धोती पहनती है।
त्योहार के अनुष्ठान कठोर हैं और चार दिनों की अवधि में मनाया जाते हैं। इसमें पवित्र स्नान उपवास और पीने के पानी से दूर रहना लंबे समय तक पानी में खड़ा होना और प्रसाद और अर्घ्य देना शामिल हैं। पारवातिन नामक मुख्य उपासक (संस्कृत पार्व से, ‘त्यौहार’) आमतौर पर महिलाएं होती है। लेकिन बड़ी संख्या में पुरुष भी इस त्यौहार का पालन करते हैं। क्योंकि छठ महापर्व किसी पुरुष-स्त्री, धर्म, जाति, ऊंच-नीच, का भेदभाव का त्यौहार नहीं है इसे सभी लोग कर सकते हैं चाहे बूढ़े-जवान या किसी धर्म जाति के हो। कुछ भक्त नदी के किनारो के लिए सर के रूप में एक प्रोस्टेशन मार्च भी करते हैं।
पर्यावरणविदों का दावा है की छठ सबसे पर्यावरण अनुकुलत हिंदू त्यौहार है।
छठ महापर्व की शुरुआत
- ऐतिहासिक रूप से मुंगेर सीता मनपत्थर सीता चरण मंदिर के लिए जाना जाता है जो मुंगेर में गंगा के बीच में एक शिलाखंड पर स्थित है। ऐसा माना जाता है कि माता सीता ने मुंगेर में छठ पर्व मनाया था। इसके बाद ही छठ महापर्व की शुरुआत हुई। इसलिए मुंगेर में छठ महापर्व बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है।
- एक कथा के अनुसार प्रथम देवासुर संग्राम में जब असुरों के हाथों देवता हार गए थे, तब देव माता अदिति ने तेजस्वी पुत्र की प्राप्ति के लिए देवारण्य के सूर्य मंदिर में रनबे (छठ मैया) अपने पुत्री की आराधना की थी। तब प्रसन्न होकर छठी मैया ने उन्हें सर्वगुण संपन्न तेजस्वी पुत्र होने का वरदान दिया था। इसके बाद अदिति के पुत्र हुए त्रिदेव रूप आदित्य भगवान, जिन्होंने असुरों पर देवताओं को विजय दिलायी।
छठ व्रत नाम कैसे पड़ा
- छठ, षष्ठी का अपभ्रंश है। कार्तिक मास की अमावस्या को दिवाली मनाने के बाद मनाया जाने वाले इस चार दिवसीय व्रत की सबसे कठिन और महत्वपूर्ण रात्रि कार्तिक शुक्ल षष्ठी की होती है। कार्तिक शुक्ल पक्ष के षष्ठी को यह व्रत मनाए जाने के कारण इसका नामकरण छठ व्रत पड़ा।
- छठ पूजा साल में दो बार होती है एक चैत मास में और दूसरा कार्तिक मास शुक्ल पक्ष चतुर्थी तिथि,पंचमी तिथि, षष्ठी तिथि और सप्तमी तिथि तक मनाया जाता है। षष्ठी देवी माता को कात्यायनी माता के नाम से भी जाना जाता है। नवरात्रि के दिन में हम षष्ठी माता की पूजा करते हैं षष्ठी माता की पूजा घर परिवार के सदस्यों के सभी सदस्यों के सुरक्षा एवं स्वास्थ्य लाभ के लिए करते हैं षष्ठी माता की पूजा, सूरज भगवान और मां गंगा की पूजा देश में एक लोकप्रिय है। यह प्राकृतिक सौंदर्य और परिवार के कल्याण के लिए की जाने वाली एक महत्वपूर्ण पूजा है। इस पूजा में गंगा स्थान या नदी तालाब जैसे जगह होना अनिवार्य हैं यही कारण है कि छठ पूजा के लिए सभी नदी तलाक की साफ सफाई किया जाता है और नदी तालाब को सजाया जाता है प्राकृतिक सौंदर्य मैं गंगा मैया या नदी तालाब मुखिया स्थान है।
लोक आस्था का महापर्व
भारत में छठ महापर्व सूर्य उपासना के लिए प्रसिद्ध पर्व है। यह पर्व वर्ष भर में दो बार मनाया जाता है पहली बार चैत्र में और दूसरी बार कार्तिक में। चैत में मनाने वाला छठ को चैती छठ कहते हैं और कार्तिक शुक्ल पक्ष में मानने वाले पर्व को कार्तिकी छठ कहते हैं। पारिवारिक सुख समृद्धि तथा मनवांशिक फल प्राप्ति के लिए यह पर्व मनाया जाता है। स्त्री या पुरुष समान रूप से इस पर्व को मानते हैं। छठ व्रत के संबंध में अनेक कथाएं प्रचलित है, उनमें से एक कथा के अनुसार जब पांडव अपना सारा राजपाट जुए में हार गए, तब श्री कृष्ण द्वारा बताएं जाने पर द्रोपती ने छठ व्रत रखा। तब उनकी मनोकामनाएं पूरी हुई तथा पांडवों को उनका राज पाठ वापस मिला। लोक परंपरा के अनुसार सूर्य देव और छठी मैया का संबंध भाई-बहन का है। लोक मातृका षष्ठी की पहली पूजा सूर्य ने की थी।
छत पर को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो षष्ठी किसी को एक विशेष खगोलीय परिवर्तन होता है, इस समय सूर्य की पराबैंगनी किरण पृथ्वी की सतह पर सामान्य से अधिक मात्रा में एकत्र हो जाती है इस कारण इसके संभावित कुप्रभावों से मानव की यथासंभव रक्षा करने का सामर्थ्य प्राप्त होता है। यह पर्व पालनपुर से सूर्य प्रकाश के हानिकारक प्रभाव से जीवो की रक्षा संभव है। पृथ्वी के जीवन को इससे बहुत लाभ मिलता है।
छठ पर्व किस प्रकार मनाते हैं?
यह पर्व चार दिनों का है भैया दूज के तीसरे दिन से यह प्रारंभ होता है। पहले दिन सेंधा नमक, घी से बना हुआ अरवा चावल और कद्दू कीसब्जी प्रसाद के रूप में ली जाती है। अगले दिन से उपवास आराम होता है। व्रति दिनभर अन्न जल त्याग कर शाम को छठ घाट पर जाते हैं और पूजा करने के उपरांत वापस घर आकर करीब 7:00 से खीर बनाकर उसे ग्रहण करते हैं, जिसे खरना का प्रसाद कहते हैं, तीसरे दिन डूबते हुए सूर्य को अर्घ्य यानी दूध अर्पण करते हैं। अंतिम दिन उगते हुए सूर्य को अर्घ्य चढ़ते हैं। पूजा में पवित्रता का विशेष ध्यान रखा जाता है, लहसुन प्याज वर्जित होता है। जिन घरों में यह पूजा होती है वहां भक्ति गीत गाए जाते हैं अंत में लोगों को पूजा का प्रसाद दिया जाता है।
छठ पूजा के चार दिन को जाने
छठ पूजा चार दिवसीय उत्सव है। इसकी शुरुआत कार्तिक शुक्ल चतुर्थी को तथा समाप्ति कार्तिक शुक्ल सप्तमी को होती है। इस दौरान व्रतधारी लगातार 36 घंटे का व्रत रखते हैं। इस दौरान वे पानी भी ग्रहण नहीं करते।
पहला दिन: नहाय खाय
छठ पर्व का पहला दिन जिसे ‘नहाय-खाय’ के नाम से जाना जाता है,उसकी शुरुआत चैत्र या कार्तिक महीने के चतुर्थी कार्तिक शुक्ल चतुर्थी से होता है ।सबसे पहले घर की सफाई कर उसे पवित्र किया जाता है। उसके बाद व्रती अपने नजदीक में स्थित गंगा नदी,गंगा की सहायक नदी या तालाब में जाकर स्नान करते है। स्वच्छ जल से अच्छी तरह बालों को धोते हुए स्नान करते हैं। लौटते समय वो अपने साथ गंगाजल लेकर आते है जिसका उपयोग वे खाना बनाने में करते है । वे अपने घर के आस पास को साफ सुथरा रखते है । व्रती इस दिन सिर्फ एक बार ही खाना खाते है । खाना में व्रती कद्दू की सब्जी ,मुंग चना, चावल दाल का उपयोग करते है .तली हुई पूरियाँ पराठे सब्जियाँ आदि वर्जित हैं. यह खाना कांसे या मिटटी के बर्तन में पकाया जाता है। खाना पकाने के लिए आम की लकड़ी और मिटटी के चूल्हे का इस्तेमाल किया जाता है। जब खाना बन जाता है तो सर्वप्रथम व्रती खाना खाते है उसके बाद ही परिवार के अन्य सदस्य खाना खाते है ।
दूसरा दिन: खरना
छठ पर्व का दूसरा दिन जिसे खरना या लोहंडा के नाम से जाना जाता है,चैत्र या कार्तिक महीने के पंचमी को मनाया जाता है। इस दिन व्रती पुरे दिन उपवास रखते है . इस दिन व्रती अन्न तो दूर की बात है सूर्यास्त से पहले पानी की एक बूंद तक ग्रहण नहीं करते है। शाम को चावल गुड़ और गन्ने के रस का प्रयोग कर खीर बनाया जाता है। खाना बनाने में नमक और चीनी का प्रयोग नहीं किया जाता है।एकान्त रहकर उसे ग्रहण करते हैं। परिवार के सभी सदस्य उस समय घर से बाहर चले जाते हैं ताकी कोई शोर न हो सके। एकान्त से खाते समय व्रती हेतु किसी तरह की आवाज सुनना पर्व के नियमों के विरुद्ध है।
तीसरा दिन: संध्या अर्घ्य
छठ पर्व का तीसरा दिन जिसे संध्या अर्घ्य के नाम से जाना जाता है,पुरे दिन सभी लोग मिलकर पूजा की तैयारिया करते है। छठ पूजा के लिए विशेष प्रसाद जैसे ठेकुआ, चावल के लड्डू जिसे कचवनिया भी कहा जाता है, बनाया जाता है । छठ पूजा के लिए एक बांस की बनी हुयी टोकरी जिसे दउरा कहते है में पूजा के प्रसाद,फल डालकर देवकारी में रख दिया जाता है। वहां पूजा अर्चना करने के बाद शाम को एक सूप में नारियल,पांच प्रकार के फल,और पूजा का अन्य सामान लेकर दउरा में रख कर घर का पुरुष अपने हाथो से उठाकर छठ घाट पर ले जाता है। यह अपवित्र न हो इसलिए इसे सर के ऊपर की तरफ रखते है। छठ घाट की तरफ जाते हुए रास्ते में प्रायः महिलाये छठ का गीत गाते हुए जाती है । नदी से मिटटी निकाल कर छठ माता का जो चौरा बना रहता है उस पर पूजा का सारा सामान रखकर नारियल चढाते है और दीप जलाते है। सूर्यास्त से कुछ समय पहले सूर्य देव की पूजा का सारा सामान लेकर घुटने भर पानी में जाकर खड़े हो जाते है और डूबते हुए सूर्य देव को अर्घ्य देकर पांच बार परिक्रमा करते है।
सामग्रियों में, व्रतियों द्वारा स्वनिर्मित गेहूं के आटे से निर्मित ‘ठेकुआ’ सम्मिलित होते हैं।उपरोक्त पकवान के अतिरिक्त कार्तिक मास में खेतों में उपजे सभी नए कन्द-मूल, फलसब्जी, मसाले व अन्नादि यथा गन्ना, ओल, हल्दी, नारियल, नींबू(बड़ा), पके केले आदि चढ़ाए जाते हैं। ये सभी वस्तुएं साबूत (बिना कटे टूटे) ही अर्पित होते हैं। इसके अतिरिक्त दीप जलाने हेतु,नए दीपक,नई बत्तियाँ व घी ले जाकर घाट पर दीपक जलाते हैं। बहुत सारे लोग घाट पर रात भर ठहरते है वही कुछ लोग छठ का गीत गाते हुए सारा सामान लेकर घर आ जाते है और उसे देवकरी में रख देते है ।
चौथे दिन: उषा अर्घ्य
चौथे दिन कार्तिक शुक्ल सप्तमी की सुबह उदियमान सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है। सूर्योदय से पहले ही व्रती लोग घाट पर उगते सूर्यदेव की पूजा हेतु पहुंच जाते हैं और शाम की ही तरह उनके पुरजन-परिजन उपस्थित रहते हैं। संध्या अर्घ्य में अर्पित पकवानों को नए पकवानों से प्रतिस्थापित कर दिया जाता है परन्तु कन्द, मूल, फलादि वही रहते हैं। सभी नियम-विधान सांध्य अर्घ्य की तरह ही होते हैं। सिर्फ व्रती लोग इस समय पूरब की ओर मुंहकर पानी में खड़े होते हैं व सूर्योपासना करते हैं। पूजा-अर्चना समाप्तोपरान्त घाट का पूजन होता है। वहाँ उपस्थित लोगों में प्रसाद वितरण करके व्रती घर आ जाते हैं और घर पर भी अपने परिवार आदि को प्रसाद वितरण करते हैं। थोड़ा प्रसाद खाकर व्रत पूर्ण करते हैं जिसे पारण या परना कहते हैं।