March 11, 2025 10:35 PM

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होलिका दहन : भक्ति, आस्था और अधर्म पर धर्म की विजय की प्रतीक कथा – होली पर्व की ऐतिहासिक और धार्मिक पृष्ठभूमि

होलिका दहन : होली का पर्व केवल रंगों और उल्लास का नहीं, बल्कि आस्था, भक्ति और धर्म की जीत का प्रतीक भी है। इस उत्सव का ऐतिहासिक महत्व प्राचीन पौराणिक कथाओं में निहित है,

होलिका दहन : होली का पर्व रंगों और उल्लास का प्रतीक होने के साथ-साथ धार्मिक और पौराणिक महत्व भी रखता है। इसकी उत्पत्ति के पीछे कई कथाएं प्रचलित हैं, लेकिन इनमें सबसे अधिक लोकप्रिय कथा है भक्त प्रह्लाद और होलिका की, जो अधर्म पर धर्म और अन्याय पर भक्ति की विजय का प्रतीक है।

भक्त प्रह्लाद और होलिका की कथा

पौराणिक कथाओं के अनुसार, राजा हिरण्यकश्यप नामक एक अत्याचारी राक्षस राजा था, जिसने कठोर तपस्या कर भगवान ब्रह्मा से वरदान प्राप्त किया था कि वह न दिन में मरेगा, न रात में, न कोई मानव उसका अंत कर सकेगा, न कोई पशु, न वह किसी अस्त्र-शस्त्र से मरेगा, न धरती पर और न ही आकाश में। इस वरदान के कारण वह स्वयं को अमर समझने लगा और अहंकार में आकर भगवान विष्णु का विरोधी बन बैठा।

राजा हिरण्यकश्यप का पुत्र प्रह्लाद बचपन से ही भगवान विष्णु का परम भक्त था। उसने अपने पिता की अधर्मपूर्ण नीतियों का विरोध करते हुए सच्चे मार्ग पर चलने का निर्णय लिया। यह देखकर राजा हिरण्यकश्यप क्रोधित हो गया और उसने प्रह्लाद को विष्णु भक्ति से रोकने के लिए कई कठोर दंड दिए। किंतु प्रह्लाद अडिग रहा।

राजा हिरण्यकश्यप ने जब देखा कि उसके सभी प्रयास निष्फल हो रहे हैं, तो उसने अपनी बहन होलिका की सहायता लेने का निश्चय किया। होलिका को ब्रह्मा जी से एक वरदान प्राप्त था, जिसके अनुसार वह अग्नि में जल नहीं सकती थी। उसने इस वरदान का प्रयोग करते हुए, प्रह्लाद को अपनी गोद में लेकर अग्नि में बैठने की योजना बनाई, ताकि प्रह्लाद को जला दिया जाए और वह स्वयं सुरक्षित रहे।

लेकिन भगवान विष्णु की कृपा से यह योजना विफल हो गई। जैसे ही होलिका ने प्रह्लाद को लेकर अग्नि में प्रवेश किया, दिव्य शक्ति के प्रभाव से होलिका का वरदान निष्फल हो गया और वह स्वयं जलकर भस्म हो गई, जबकि प्रह्लाद सुरक्षित रहे।

अधर्म पर धर्म की विजय का प्रतीक होलिका दहन

होलिका दहन इस घटना की याद में मनाया जाता है, जो अधर्म, अहंकार और अन्याय के विनाश तथा सत्य, भक्ति और धर्म की विजय का प्रतीक है। होली के एक दिन पहले होलिका दहन किया जाता है, जिसमें लकड़ियां, उपले और अन्य सामग्री जलाकर बुराई को समाप्त करने की भावना व्यक्त की जाती है।

भगवान नरसिंह और राजा हिरण्यकश्यप की कथा

प्रह्लाद को मारने के सभी प्रयास असफल होने पर राजा हिरण्यकश्यप ने स्वयं उसे मारने का निश्चय किया। लेकिन ठीक उसी समय भगवान विष्णु ने नरसिंह अवतार (अर्ध-मानव, अर्ध-सिंह) धारण किया। उन्होंने राजा हिरण्यकश्यप को अपने घुटनों पर रखकर संध्या समय (जब न दिन था, न रात), एक खंभे से प्रकट होकर (न आकाश, न धरती), अपने नाखूनों से (न अस्त्र, न शस्त्र) उसका वध कर दिया। इस प्रकार भगवान विष्णु ने अपने भक्त प्रह्लाद की रक्षा की और अधर्म के प्रतीक राजा हिरण्यकश्यप का अंत किया।

होलिका दहन की परंपरा और इसका महत्व

होलिका दहन के दिन लोग लकड़ियों और उपलों से होलिका का निर्माण करते हैं और सूर्यास्त के बाद विधिवत रूप से अग्नि प्रज्वलित कर पूजा-अर्चना करते हैं। इस दौरान बुराई के नाश के प्रतीक स्वरूप लोग अपनी नकारात्मक भावनाओं, बुरी आदतों और अहंकार को होलिका की अग्नि में जलाने का संकल्प लेते हैं।

आधुनिक संदर्भ में होलिका दहन का संदेश

आज के समय में भी होलिका दहन केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि एक सामाजिक संदेश भी देता है। यह हमें सिखाता है कि अहंकार, अन्याय और अधर्म की उम्र चाहे कितनी भी लंबी क्यों न हो, अंततः सत्य, भक्ति और धर्म की विजय अवश्य होती है।

इस पावन अवसर पर हमें अपने भीतर की नकारात्मकता, घृणा और बुरी आदतों को समाप्त कर जीवन में सच्चाई, सद्भावना और प्रेम को अपनाने का संकल्प लेना चाहिए। यही होलिका दहन का वास्तविक संदेश है।

– जय श्री हरि –

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