Sonprabhat Digital Desk
• फिल्म ‘फुले’ पर विवाद, प्रदर्शन स्थगित
Phule: सामाजिक सुधारकों और शिक्षाविद दंपति ज्योतिबा फुले और सावित्रीबाई फुले के जीवन पर आधारित फिल्म ‘फुले’ को रिलीज़ से पहले ही विवादों का सामना करना पड़ रहा है। यह फिल्म जहां एक ओर भारत की पहली महिला शिक्षिका और नारी मुक्ति की अगुआ सावित्रीबाई फुले के संघर्षों को मुख्यधारा में लाने का प्रयास करती है, वहीं कुछ ब्राह्मण संगठनों ने फिल्म पर समुदाय विशेष को गलत तरीके से दर्शाने का आरोप लगाया है।
क्या है फिल्म का कथानक?
निर्देशक अनंत महादेवन द्वारा निर्देशित ‘फुले’ एक बायोपिक है, जो 19वीं सदी के उस दौर को उजागर करती है जब लड़कियों की शिक्षा केवल एक विशेष वर्ग तक सीमित थी।
ज्योतिबा और सावित्रीबाई ने समाज की रूढ़ियों से लड़ते हुए न सिर्फ लड़कियों के लिए स्कूल खोले, बल्कि जाति और लिंग आधारित भेदभाव के खिलाफ भी आवाज़ उठाई।

फिल्म में अभिनेता प्रतिक गांधी और अभिनेत्री पत्रलेखा मुख्य भूमिकाओं में हैं, और इसे देशव्यापी रिलीज़ के लिए तैयार किया गया है।
विवाद की जड़ क्या है?
फिल्म के टीज़र और ट्रेलर जारी होने के बाद हिंदू महासंघ, अखिल भारतीय ब्राह्मण समाज और परशुराम आर्थिक विकास महामंडल जैसे संगठनों ने आपत्ति जताई।
इनका कहना है कि फिल्म ‘एकतरफा’ और ‘ब्राह्मण विरोधी’ है।
हिंदू महासंघ के आनंद दवे ने मीडिया से बातचीत में कहा,
“हमें इस बात पर आपत्ति नहीं कि फुले दंपत्ति के योगदान को दिखाया जाए, लेकिन फिल्म में यह भी दिखाया जाना चाहिए कि एक ब्राह्मण परिवार ने ही अपने घर में पहला स्कूल खोलने की अनुमति दी थी।”
CBFC ने सुझाए बदलाव, फिर भी जारी रही आपत्ति
फिल्म को सेंसर बोर्ड (CBFC) से ‘U’ सर्टिफिकेट मिल चुका है, और निर्देशक ने बोर्ड द्वारा सुझाए गए सभी बदलाव भी स्वीकार किए हैं।
फिर भी संगठनों का कहना है कि
“सिर्फ कलात्मक स्वतंत्रता के नाम पर समाज के ताने-बाने को नहीं बिगाड़ा जा सकता।”
विवादित दृश्य क्या है?
फिल्म में एक दृश्य में एक ब्राह्मण लड़का सावित्रीबाई फुले पर गोबर फेंकता है, जो कि असल घटनाओं पर आधारित है।
इतिहास बताता है कि सावित्रीबाई रोज़ाना एक अतिरिक्त साड़ी लेकर स्कूल जाती थीं, क्योंकि रास्ते में उन पर गोबर और अंडे फेंके जाते थे।
यह दृश्य श्याम बेनेगल द्वारा निर्देशित ‘भारत एक खोज’ नामक श्रृंखला में भी दिखाया गया है, जो आज भी दूरदर्शन के अभिलेखागार में मौजूद है।
तो आपत्ति क्यों?
सवाल उठता है कि अगर फिल्म में दिखाया गया सब कुछ ऐतिहासिक तथ्यों पर आधारित है, तो फिर विरोध किस बात का?
क्या जाति व्यवस्था भारत का हिस्सा नहीं रही?
क्या सावित्रीबाई और ज्योतिबा फुले ने इसी के खिलाफ संघर्ष नहीं किया था?
क्या उनके योगदान को आज देशभर में सम्मान नहीं मिलता?
यदि ये सब नकारा जाता है, तो हम खुद अपने इतिहास को झुठला रहे हैं।
फिल्म मात्र एक श्रद्धांजलि, न कि प्रहार
‘फुले’ कोई आंदोलन नहीं, बल्कि उन मूल्यों का प्रदर्शन है जिनकी नींव भारत की शिक्षा व्यवस्था और सामाजिक चेतना पर पड़ी है।
आज जब सावित्रीबाई और ज्योतिबा फुले को भारत रत्न देने की मांग हो रही है, तब उनकी कहानी को फिल्म के माध्यम से दिखाना उनके विचारों को जन-जन तक पहुंचाने का एक माध्यम भर है।
जब तक जातिगत भेदभाव और लैंगिक असमानता समाप्त नहीं होती, तब तक फुले दंपत्ति की सीखें प्रासंगिक बनी रहेंगी।

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