December 28, 2024 1:20 PM

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रामचरितमानस –ः ‘बरस चारिदस बास बन, मुनि ब्रत बेषु अहारू।’ –मति अनुरूप– जयंत प्रसाद

सोनप्रभात- (धर्म ,संस्कृति विशेष लेख) 

– जयंत प्रसाद ( प्रधानाचार्य – राजा चण्डोल इंटर कॉलेज, लिलासी/सोनभद्र )

–मति अनुरूप–

ॐ साम्ब शिवाय नम:

श्री हनुमते नमः

 

श्री रामचरितमानस की एक– एक चौपाई कल्याणकारी महामंत्र है और एक-एक शब्द अत्यंत ही उपयुक्त एवं व्यवस्थित है। हम अपनी अज्ञानता वश ही उसे कहीं–कहीं  अव्यवस्थित और बेमेल मानकर संदेह करते हैं, ऐसा मेरा पूर्ण विश्वास है। इस कारण सम्मानित पाठक बंधुओं से निवेदन है कि रामचरितमानस के प्रसंगों में संदेह होने पर उसके यथार्थ रहस्य को जानने–समझने का प्रयास किया जाना चाहिए। आइए इसी प्रकार की असंख्य में से एक दो प्रसंगों की चर्चा करते हैं।

निषाद प्रसंग में जब निषादराज ने प्रभु से अपने घर पधारने का निवेदन किया तो प्रभु द्वारा दिए गए उत्तर पर ध्यान दें–

बरस चारिदस बास बन, मुनि ब्रत बेषु अहारू।
ग्राम बासु नहिं उचित सुनि, गुहहिं भयउ दुखु भारू।

यहाँ वनवास के चौदह वर्ष की अवधि को दो भागों में (चारि+ दस) कहा गया है, साथ ही छोटे भाग को पहले और बडे भाग को बाद में कहा गया है। इससे यह संकेत है कि अभी वनवास की थोड़ी अवधि बीती है और बड़ी अवधि शेष है। दो भागों में कह कर प्रभु चौदह वर्ष की अवधि को ऐसे व्यक्त करना चाहते हैं मानों यह अवधि कोई विशेष लंबी नहीं है और इसमें दुख करने या दुखी होने की कोई बात नहीं। बाद में ऐसा ही निवेदन सुग्रीव के द्वारा करने पर प्रभु के कथन को मानसकार लिखता है –

कह प्रभु सुनु सुग्रीव हरीसा । पुर न जाउँ दस चारि बरीसा।

यहां ‘दस’ यानी बड़े भाग को पहले तथा ‘चारि’ अर्थात छोटे भाग को बाद में प्रस्तुत कर यह संकेत किया जा रहा है कि वनवास की अधिकांश अवधि बीत चुकी है, थोड़ा भाग बचा है इस कारण मेरे वनवास से दुखी होने की आवश्यकता नहीं है।  फिर इसी छोटी अवधि में शेष सभी कार्य (लीला) पूर्ण भी करनी है और अंत समय में वनवास के व्रत का भंग करना ठीक नहीं।

यही निवेदन जब लंका विजय के पश्चात विभीषण जी करते हैं तो प्रभु के उत्तर में मानसकार का प्रस्तुतीकरण देखने योग्य है। अब अवधि का एक वर्ष भी शेष नहीं है इस कारण समयावधि कोई उल्लेख नहीं–

पिता बचपन मैं नगर न आवउॅं। आपु सरिस कपि अनुज पठावउँ। 

इसके अतिरिक्त निषाद प्रसंग में ‘ग्रामवास नहि उचित’  सुग्रीव प्रसंग में ‘ पुर न जाउँ’ और विभीषण जी के प्रसंग में ‘नगर न आवउँ’ लिखकर यह दर्शाया गया है कि ग्राम, पुर और नगर बस्ती के अलग-अलग विभाग हैं। ग्राम (गांव) पुर (पुरवा या टोला) और नगर अर्थात कस्बा।

चौदह वर्ष तक प्रभु उपर्युक्त बस्ती के तीनों विभागों में नहीं पधारे, हां मुनियों के आश्रम में जाते थे जो बस्ती के उन तीनों श्रेणियों में नहीं आते थे।  मुनियों का आश्रम वन में ही तपस्या का प्रदेश था, जिसका सेवन चौथे पन में प्रायः सभी करते थे, राजा भी –  ‘चौथे पन नृप कानन जाहीं।’ इस प्रकार ये आश्रम तपस्वियों के रहने का स्थान था, जो वन प्रदेश ही था–

‘उदासीन तापस वन रहहीं।’

 

-सियावर रामचंद्र की जय-

–जयंत प्रसाद

  • प्रिय पाठक!  रामचरितमानस के विभिन्न प्रसंग से जुड़े लेख प्रत्येक शनिवार प्रकाशित होंगे। लेख से सम्बंधित आपके विचार व्हाट्सप न0 लेखक- 9936127657, प्रकाशक-  8953253637 पर आमंत्रित हैं।

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रामचरितमानस –ः “कुलिसहु चाहि कठोर अति, कोमल कुसुमहु चाहि।” –मति अनुरूप– जयंत प्रसाद

पूर्व प्रकाशित रामचरितमानस अंक – मति अनुरूप– 

 

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