सोनप्रभात- (धर्म ,संस्कृति विशेष लेख) रामचरितमानस
– जयंत प्रसाद ( प्रधानाचार्य – राजा चण्डोल इंटर कॉलेज, लिलासी/सोनभद्र )
–मति अनुरूप–
ॐ साम्ब शिवाय नम:
श्री हनुमते नमः
“धर्म हेतु अवतरेहु गोसाईं। मारेहु मोहिं ब्याध की नाईं।
मैं बैरी सुग्रीव पियारा। अवगुन कवन नाथ मोहिं मारा।”
श्री रामचरितमानस का यह प्रसंग किष्किंधा कांड का है, जिसमें मरणासन्न बालि श्रीराम पर अधर्म करने और बहेलिया की तरह छिपकर मारने का आरोप लगाते हुए प्रश्न कर रहा है।
सर्वप्रथम तो श्री रामचरित मानस में किसी भी स्थान पर ऐसा वर्णन नहीं आया है, जिससे यह सूचित हो रहा हो कि बालि को श्री राम जी ने आड़ से मारा। वृक्ष के आड़ से दोनों भाइयों का द्वंद युद्ध राम द्वारा देखने का वर्णन है, यथा –
“पुनि नाना विधि भई लराई। बिटप ओट देखहिं रघुराई।”
आगे की चौपाई से ऐसा लगता है कि श्री राम जी ने युद्ध आड़ से अवश्य देखा पर मारा सामने से। अर्थात प्रतीत होता है कि बाण सामने से ही चलाया गया। यथा–
“परा बिकल महि सर के लागे। पुनि उठि बैठ दीख प्रभु आगे।”
अर्थात बालि ने प्रभु को अपने सामने पाया। पर बालि तो प्रभु के सामने ही उन्हें आरोपित कर रहा है कि आपने मुझे बहेलिए की तरह आड़ से मारा और प्रभु इससे इनकार भी नहीं कर रहे हैं, अतः यह सिद्ध जान पड़ रहा है कि बालि को युद्ध के दौरान राम दिखे नहीं।
एक-दूसरे के सामने होते हुए भी न देख पाने का कारण यह भी हो सकता है कि बालि स्वयं किसी आड़ में हो। परमेश्वर का दर्शन तो विगत अभिमान होकर ही किया जा सकता है। संत कबीर कहते हैं–
जब “मैं” था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाहिं अर्थात “मैं” (अहंकार) और ईश्वर एक साथ नहीं रहते। एक संत के मुख से मैंने एक गीत सुनी–
“आम है आज भी उनके जलवे, पर कोई देख सकता नही है।
सबके नजरों पे परदा पड़ा है, उनके चेहरे पे परदा नही है।।”
अतः ऐसा जान पड़ता है, कि “विटप ओट देखहिं रघुराई।” से मानसकार ने बड़ी चतुराई से यह संकेत किया है कि– श्री राम यह देख रहे हैं कि बालि विटप अर्थात् अहंकार रूपी वृक्ष के ओट में है। प्रभु इसी आशय का संकेत अपने उत्तर में कर रहे हैं–
“मूढ तोहिं अतिसय अभिमाना।” अर्थात रे मूर्ख तू तो अतिसय अभिमान यानी विशाल वृक्ष (अभिमान रूपी) के आड़ में है। श्री रामचरित मानस में अहंकार को कुछ स्थानों पर प्रभु ने स्वयं भी वृक्ष के रूप में माना है। यथा–
“करुनानिधि मन दीख विचारी, उर अंकरेउ गरब तरु भारी।”
इस प्रकार यही जान पड़ता है कि बालि स्वयं अभिमान रूपी वृक्ष के आड़ में होने के कारण प्रभु को देख नहीं पा रहा है और कह रहा है– “मारेहु मोहि ब्याध की नाई।”
प्रभु के बाण का स्पर्श होते ही बाली का मोह समाप्त हो गया, प्रभु को पहचान गया तथा लोक शिक्षा के लिए भगवान से प्रश्न किया और संसार को उत्तर या उपदेश भी मिल गया। “मैं बैरी सुग्रीव पियारा” अर्थात मैं आपका शत्रु और सुग्रीव आपका मित्र कैसे? के उत्तर में प्रभु कहते हैं कि– हे बालि तुम्हें इतना अभिमान है कि मेरे आश्रित जान कर भी तुमने सुग्रीव को मारना चाहा। इस प्रकार तूँ मेरा शत्रु और सुग्रीव का मेरे शरण में आश्रय लेना ही उसे मेरे प्यारा होने का कारण है–
मम भुजबल आश्रित तेही जानी। मारा चहसि अधम अभिमानी।
बालि के प्रश्न– “अवगुन कवन नाथ मोहिं मारा।” के उत्तर में प्रभु श्री राम कहते हैं कि– छोटे भाई की पत्नी, बहन, पुत्र वधू और कन्या इन चारों की श्रेणी एक है। इन्हें कुदृष्टि से देखने वाला भी वध करने योग्य होता है और इसमें पाप नहीं लगता। यथा–
अनुजबधू भगिनी सुत नारी। सुन सठ कन्या सम ए चारी।
इन्हहिं कुदृष्टि विलोकइ जोई। ताहि बधे कछु पाप न हाेई।
एक स्थान पर तो मानसकार स्वयं प्रभु को ब्याध की तरह बालि का वध करना स्वीकारता है यथा–
जेहि अध बधेउ व्याध जिमि बाली।पुनि सुकंठ सोइ कीन्ह कुचाली।
मेरे विचार से ब्याध की तरह मारने का अर्थ छिपकर मारने के अतिरिक्त यह भी तो हो सकता है कि जिस प्रकार बहेलिया कोई दुश्मनी नहीं होने पर भी पक्षियों का शिकार करता है, वैसे ही क्यों प्रभु ने बालि से कोई प्रत्यक्ष रार न होते हुए भी वध क्यों किया? यहां मुख्य युद्ध बालि और सुग्रीव के मध्य था तथा प्रभु सुग्रीव के सहायक थे इसी कारण प्रभु ने उन दोनों के द्वन्द्व युद्ध के बीच पहले नहीं आये, पर जब लगा कि सुग्रीव का बालि द्वारा अंत होने ही वाला है। तब प्रभु ने सुग्रीव को बचाने के लिए, सुग्रीव के हार जाने पर सहायक बन कर बालि का वध किया। यथा–
वहु छल बल सुग्रीव कर, हियँ हारा भय मानि।
मारा बालि राम तब हृदय माझ सर तानि।
यर्थाथतः प्रभु का यह अवतार मर्यादा पुरुषोत्तम अर्थात मर्यादा की स्थापना हेतु हुआ था। और बातें तो परमेश्वर के संदर्भ में ठीक है पर नर के रूप में तो सभी को लगना ही चाहिए कि उन्होंने बालि का वध व्याध की तरह किया। क्योंकि बालि को वरदान प्राप्त था कि वह सामने से किसी के भी द्वारा पराजित हो ही नहीं सकता। इस प्रकार श्री राम के द्वारा मर्यादा की रक्षा हुई और बाली को अपना वध ब्याध की तरह लगा, तथा सहज ही पूछ बैठा–
“धर्म हेतु अवतरेहु गोसाईं। मारेहु मोहिं ब्याध की नाईं।
मैं बैरी सुग्रीव पियारा। अवगुन कवन नाथ मोहिं मारा।”
जय जय श्री सीताराम
-जयंत प्रसाद
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रामचरितमानस-: “उमा दारू जोषित की नाईं। सबहिं नचावत राम गोसाईं।”- मति अनुरुप- अंक 41. जयंत प्रसाद
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