July 26, 2025 8:13 AM

Menu

रामचरितमानस–: “राम सदा सेवक रूचि राखी। बेद पुरान साधु सुर साखी।”- मति अनुरुप- (अंक-27) जयंत प्रसाद

सोनप्रभात- (धर्म ,संस्कृति विशेष लेख) 

– जयंत प्रसाद ( प्रधानाचार्य – राजा चण्डोल इंटर कॉलेज, लिलासी/सोनभद्र )

–मति अनुरूप–

ॐ साम्ब शिवाय नम:

श्री हनुमते नमः

 

राम सदा सेवक रूचि राखी।  बेद पुरान साधु सुर साखी।

प्रभु अपने भक्तों की रुचि सदैव पूरी करते हैं, आज का अंक इसी प्रसंग पर आधारित है। शूर्पणखा के नाक कान छेदन के प्रतिशोध में रावण ने सीता हरण की योजना बनाई और अपना राजसी ठाट–बाट त्यागकर अकेला सिंधु किनारे मारीच के आवास पर पहुंचा और शिर झुका कर प्रणाम किया–

दस मुख गयउ जहां मारीचा। नाइ माथ स्वारथ रत नीचा।

स्वार्थ में जीव इतना गिर जाता है कि रावण साधारण मारीच के पास अकेला ही पहुंचता है और झुक कर प्रणाम करता है। स्वार्थ में मनुष्य अपने सम्मान का भी ख्याल नहीं करता। मारीच को रावण का इस बेमेल आचरण पर अचंभा हुआ और वह विचार करने लगा कि–  अंकुश,धनुष, सांप और बिल्ली की तरह नीच का झुकना अत्यंत ही दुखदायी होता है–

नवनि नीच कै अति दुखदाई। जिमि अंकुस धनु उरग बिलाई।

और दुष्ट की मीठी बोली भी  बे मौसम के फूल की तरह भय दायक होता है–

भय दायक खल कै प्रिय बानी। जिमि अकाल कै कुसुम भवानी।

मारीच द्‍वारा अकेले आने के कारण पूछने पर रावण ने अपनी योजना बताते हुए उसे स्वर्ण मृग बनने को कहा। इस पर मरीज ने ताड़का, सुबाहु, धनुष यज्ञ, खर दूषण वध आदि की चर्चा विस्तार से करते हुए राम को परमेश्वर बताया।

जेहि ताड़का सुबाहु हति, खण्डेउ हर कोदंड।
खर दूषण त्रिसिरा बधेउ,मनुज कि अस बरिवंड।

इस पर रावण ने ऐसा न करने पर मारीच का वध करने का संकेत किया तो मारीच ने विचार किया कि नौ लोगों का विरोध करने में कल्याण नहीं है–

१- शस्त्र धारी २- भेद जानने वाला ३- समर्थ स्वामी ४- मूर्ख ५- धनवान ६- वैद्य ७- भाट ८- कवि और ९- चतुर रसोईया।

तब मारीच हृदय अनुमाना। नवहि विरोधे नहिं कल्याना।
सस्त्री मर्मी प्रभु सठ धनी। बैद बंदि कवि भानस गुनी।

इस प्रकार दोनों परिस्थितियों में मृत्यु निश्चित है तो राम के हाथ ही क्यों ना मरा जाए?–

उभय भाँति देखा निज मरना। तब ताकेसि रघुनायक सरना।

अतः मारीच ने रावण की बात मान ली और यह रूचि लेकर राम के शरण में चला कि अब तक तो भगवान के पीछे भक्त भागता था आज भगवान मेरे पीछे दौड़ेंगे और मैं पीछे मुड़–मुड़ प्रभु का दर्शन कर धन्य हो जाऊंगा–

मम पाछे धर धावत, धरे सरासन बान।
फिरि फिरि प्रभुहि बिलोकिहउँ, धन्य न मोसम आन।

जब मारीच कनक मृग के रूप में प्रभु के कुटिया के समीप पहुंचा तो उसे कुटिया के बाहर पहरे पर बैठे लक्ष्मण या राम ने नहीं देखा। सबसे पहले सीता ने देखा और बिना विचार–विमर्श के प्रभु को मृग चर्म लाने को आदेश आग्रह किया।

सत्य सन्ध प्रभु बध करि एही। आनहु चर्म कहति वैदेही।

वही सीता जो सदैव प्रभु के चरणों का दर्शन करते रहने और इसी में प्रसन्न रहने की बात करती हुई वन आयी थी–

छ्निु छ्निु प्रभु पद कमल बिलोकी। रहिहउँ मुदित दिवस जिमि कोकी।
मोहिं मग चलत न  होइहि हारी। छ्निु छ्निु चरन सरोज निहारी।

उसी सीता की दृष्टि आज सोने पर चली गई। इसी कारण प्रभु ने कुछ ऐसा संयोग लीला की कि उन्हें (सीता) स्वर्ण नगरी लंका जाना पड़ा ताकि सदैव सोना ही देखती रहे।

विचारणीय है कि एक मृग वध करने हेतु लक्ष्मण को भी आदेशित किया जा सकता था या जयंता की तरह उसके पीछे वाण संधान कर छोड़ा जा सकता था पर प्रभु सीता की रूचि (उन्हीं को आदेश था) और मारीच की रुचि रखने हेतु स्वयं उठे, दौड़ पड़े, तुरंत मारा नहीं दूर तक पीछे-पीछे दौड़ कर मारीच को दर्शन का योग देते रहे, उसकी रूचि पूरी किए–

राम सदा सेवक रूचि राखी। बेद पुरान साधु सुर साखी।

जय जय श्री सीताराम

-जयंत प्रसाद

 

  • प्रिय पाठक!  रामचरितमानस के विभिन्न प्रसंग से जुड़े लेख प्रत्येक शनिवार प्रकाशित होंगे। लेख से सम्बंधित आपके विचार व्हाट्सप न0 लेखक- 9936127657, प्रकाशक-  8953253637 पर आमंत्रित हैं।

 

Click Here to Download the sonprabhat mobile app from Google Play Store.

 

रामचरितमानस –ः “कुलिसहु चाहि कठोर अति, कोमल कुसुमहु चाहि।” –मति अनुरूप– जयंत प्रसाद

पूर्व प्रकाशित रामचरितमानस अंक – मति अनुरूप– 

Ad- Shivam Medical

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

For More Updates Follow Us On

For More Updates Follow Us On