December 28, 2024 1:16 PM

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रामचरितमानस-: “सम्भु दीन्ह उपदेस हित, नहिं नारदहिं सोहान। भरद्वाज कौतुक सुनहु, हरि इच्छा बलवान।“- मति अनुरुप- अंक 40. जयंत प्रसाद

सोनप्रभात- (धर्म ,संस्कृति विशेष लेख)

– जयंत प्रसाद ( प्रधानाचार्य – राजा चण्डोल इंटर कॉलेज, लिलासी/सोनभद्र )

–मति अनुरूप–

ॐ साम्ब शिवाय नम:

श्री हनुमते नमः

सम्भु दीन्ह उपदेस हित, नहिं नारदहिं सोहान।
भरद्वाज कौतुक सुनहु, हरि इच्छा बलवान।

श्रीरामचरितमानस के नारद मोह प्रसंग में मानस के मुख्य वक्ता याज्ञवल्क्य जी कहते हैं कि–  हे भारद्वाज जी शिवजी का हितकारी उपदेश नारद को अच्छा नहीं लगा। प्रभु की इच्छा अत्यंत प्रबल है–

राम कीन्ह चाहहिं सोइ होई। करै अन्यथा अस नहिं कोई।

यद्यपि की शिवजी ने अत्यंत विनम्रता पूर्वक नारद जी को उनके काम विजय का प्रसंग श्री हरि से न सुनाने का उपदेश दिया, पर नारद जी को यह बात अच्छी नहीं लगी–

बार–बार विनवउँ मुनि तोही। जिमि यह कथा सुनायउ मोहीं।

तिमि जनि हरिहिं सुनायहु कबहूँ। चलेहु प्रसंग दुरापहु तबहूँ।

सामान्यतः पाठक गण सोचते हैं कि आखिर शिवजी ने वह प्रसंग प्रभु को सुनाने से मना क्यों किया?  चौपाई में प्रयुक्त जिमि और तिमि शब्दो पर ध्यान देने से स्पष्ट है कि जिमि अर्थात जिस प्रकार या जिस शैली में अर्थात जिस प्रकार अहंकार पूर्वक आपने काम विजय की कथा हमें सुनाई, तिमि अर्थात उस प्रकार अहंकार पूर्वक प्रभु को यह कथा न सुनाना।  मोह ग्रसित नारद को यह नहीं सुहाया, सोचा कि स्वयं शिवजी तो काम विजयी बने बैठे हैं और मैंने उनकी बराबरी कर ली या उससे भी बड़ी तमगा हासिल कर ली अर्थात् शिवजी तो केवल काम पर विजय किए क्रोध पर नहीं, क्रोध में काम को जला डाला पर मैं तो काम को भी जीता और क्रोध भी नहीं किया, क्रोध पर विजय प्राप्त कर ली तो शिवजी ईर्ष्या वश हमें यह प्रसंग सुनाने से मना कर रहे हैं। अतः बड़ी चालाकी से नारद जी शिवजी की बात रखने का दिखावा करते हुए ब्रह्मलोक चले गये।

सम्भु बचन मुनि मन नहिं भाए। तब विरंचि के लोक सिधाए।

पर नारद से अधिक समय रहा नहीं गया और वे क्षीर सागर में परम प्रभु के पास पहुंचे।

अहंकार उनके मुखमंडल पर स्पष्ट दिख रहा था। घमंडी व्यक्ति को यथार्थ बोध नहीं होता, भला देखें न,  जो नारद प्रभु के चरणों में स्थान पाने के लिए सदैव व्याकुल रहते थे और इसी को अपना परम लाभ समझते थे, वे प्रभु को प्रणाम करने की शिष्टता गवाँकर प्रभु की बराबरी करते हुए गले मिल रहे हैं–  “हरषि मिले उठि रमा निकेता।” और मोहान्धता की हद तो तब हो गई जब प्रभु के चरणों में स्थान रखने वाला भक्त नारद प्रभु के साथ उनके आसन पर बैठ गये, कोई औपचारिक अभिवादन भी नहीं किया– ” बैठे आसन रिषिहिं समेता।”  प्रभु के यह कहने पर कि हे मुनिǃ आपने आज बहुत दिनों में दया की, नारद का घमंड और भी बढ़ गया और दम्भ में भरकर बिना पूछे ही कामदेव पर विजय की कथा आरंभ कर दी–

काम चरित नारद सब भाषे। जद्‍यपि प्रथम बरजि सिव राखे।

अति प्रचंड रघुपति कै माया। जो न मोह अस को जग जाया।

भला प्रभु की माया ने किस को भ्रमित नहीं किया?

प्रभु ने नारद की बहुत बड़ाई की अब तो नारद को अपने अहंकार का भान हो जाना चाहिए था पर नारद की भारी अहंकार निद्रा नहीं टूटी। फिर प्रभु ने भक्त का समुचित उपचार ही करना उचित समझा और जिस नारद को काम और क्रोध को जीतने का घमंड था उसे विश्वमोहिनी का बंदर बनकर काम में नाचना पड़ा, और क्रोध तो ऐसा कि अपने आराध्य पर ही क्रोध कर उन्हें शाप दे डाला। हरि इच्छा अत्यंत बलवती है। हम माया ग्रसित जीवो की रक्षा मायापति भगवान सदैव करें–

सम्भु दीन्ह उपदेस हित, नहिं नारदहिं सोहान।
भरद्वाज कौतुक सुनहु, हरि इच्छा बलवान।

जय जय श्री सीताराम

-जयंत प्रसाद

  • प्रिय पाठक! रामचरितमानस के विभिन्न प्रसंग से जुड़े लेख प्रत्येक शनिवार प्रकाशित होंगे। लेख से सम्बंधित आपके विचार व्हाट्सप न0 लेखक- 9936127657, प्रकाशक- 8953253637 पर आमंत्रित हैं।

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