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संकलित – “साहित्य और सिनेमा की नायिकाओं का सौन्दर्यबोध।” – डॉ. जितेंद्रकुमार सिंह “संजय”

  • डॉ. जितेन्द्रकुमार सिंह ‘संजय’

स्त्री और सौन्दर्य का आदिकाल से शाश्वत सम्बन्ध है। सौन्दर्य की सहस्रों सहस्त्र धाराएँ स्त्री के अंग प्रत्यंगों में समाहित हो जाती हैं। स्थूल और सूक्ष्म – दोनों ही रूप में सौन्दर्य स्त्री के चतुर्दिक् घूमता दृग्गत होता है। कला की समस्त शाखाएँ अन्ततः सौन्दर्य की अभिव्यक्ति में ही ‘सत्यम्’ और ‘शिवम्’ का अनुसन्धान करती हैं। काव्यकला, मूर्तिकला, चित्रकला, संगीतकला, नाट्यकला एवं आधुनिककाल की फ़िल्मकला में भी सौन्दर्य का अप्रतिम महत्त्व है। सौन्दर्य की अभिव्यक्ति के समस्त सोपान स्त्री से ही निःसृत होते हैं। इसलिए भारतीय सौन्दर्यशास्त्रीय चिन्तन नायक-नायिका की परिकल्पना करता है। जिस सुन्दरी को देखकर हृदय में प्रेमिल भाव उत्पन्न हो, उसे नायिका कहते हैं। ‘नायिका’ शब्द की व्युत्पत्ति नायक + टाप् + इत्वम् से होती है, जिसका अर्थ ‘स्वामिनी’ है। यह नायिका का लोकोत्तर अर्थ है। काव्यशास्त्र अथवा नाट्यशास्त्र में इसका विशेष अर्थ रमणी, सुन्दरी या पात्री है। संस्कृत-साहित्य, हिन्दी-साहित्य एवं तमिऴ् के संगम-साहित्य में नायिका शब्द का प्रयोग इसी अर्थ में होता है। आचार्यों ने शोभा, कान्ति और दीप्ति से युक्त नवयुवती को नायिका माना है। गुणवती होना उसकी अतिरिक्त विशेषता है।

आचार्य भिखारीदास लिखते हैं-

जुवा सुन्दरी गुन भरी, तीनि नायिका लेखि।
सोभा कान्त सुदीप्ति जुत, नखसिख प्रभा विसेखि।।1

तमिऴ् के संगमकालीन कवियों ने समष्टिगत रूप से नायिका को तरुणी, तन्वंगी, रसवन्ती, कान्तिमती, मंजुल, मृदुल एवं प्रफुल्ल होना आवश्यक बताया है। तमिऴ् के प्राचीन नीतिकवि तिरुवल्लुवर के अनुसार नायिका में पाँचों ज्ञानेन्द्रियों को एक साथ सुख प्रदान करने की क्षमता होती है।2 संगम काव्य में नायिका का सर्वोपरि स्थान है। डॉ. व.सुब. माणिक्कम के अनुसार नायिका अहम (शृंगार) काव्य की सर्वप्रमुख पात्री है तथा पातिव्रत्य उसका प्रमुख गुण है।3 नायिका के सर्वोत्कृष्ट एवं अनिवार्य गुण का निर्देश करते हुए तमिऴ् के प्राचीन वैयाकरण महर्षि तोल्काप्पियर ने लिखा है कि नायिका लज्जा को प्राणों से बढ़कर माननेवाली हो तथा सतीत्व को लज्जा से भी बढ़ चढ़कर महत्त्व देनेवाली हो।4

संस्कृत-साहित्य में भी नायिका के विशिष्ट लक्षणों का वर्णन किया गया। नायिका के सौन्दर्य की अभिवृद्धि अंगज, अयलज तथा स्वभावज अलंकारों के द्वारा होती है। अंगज अलंकारों की संख्या तीन है – हाव, भाव और हेला। अयत्नज अलंकार सात हैं- शोभा, कान्ति, माधुर्य, दीप्ति, प्रगल्भता, औदार्य और धैर्य। स्वभावज अलंकार अट्ठारह हैं- लीला, विलास, विच्छित्ति, विभ्रम, किलकिंचित, मोट्टायित, कुट्टमित, बिब्बोक, ललित, विहृत, मुग्धता, तपन, विक्षेप, मद, कुतूहल, हसित, चकित तथा केलि। इस प्रकार नायिका के कुल अलंकारों की संख्या अट्ठाइस है।

काव्यशास्त्रीय आचार्यों ने नायिका-भेद का वर्णन सुरुचिपूर्वक किया है। ‘स्वकीया’, ‘परकीया’ और ‘सामान्या’ नायिका के सामाजिक व्यवहार या आचरण- सम्बन्धी भेद हैं। वय, मान, मनोदशा, प्रकृति या गुण एवं अवस्था के अनुसार भी नायिका का वर्गीकरण किया गया है। संस्कृत-साहित्य से निःसृत नायिका-भेद की सरस सौन्दर्य-सरिता हिन्दी के रीतिकाल तक जाते जाते अपने पूरे उत्कर्ष पर पहुँच जाती है।

नायक-नायिका-विषयक ग्रन्थों में आचार्यों ने नखशिख वर्णन अत्यन्त मनोयोगपूर्वक किया है। केश, मुखमण्डल, बाहु, स्तन, त्रिवली, रोमराजि, नाभिकूप, नेत्र, अधर, जघन, नितम्ब, चरण आदि का वर्णन संस्कृत, हिन्दी, तमिळू आदि भारतीय भाषायों के कवियों ने समान रूप से किया है। नखशिख वर्णन- सम्बन्धी उपमान भारतीय भाषाओं में एक जैसे हैं।

नायिका के सौन्दर्य का नखशिख-वर्णन मात्र शृंगारकाव्य में ही नहीं, अपितु स्तोत्रकाव्य में भी भरा पड़ा है। भारतीय देवियों का स्तवन करते हुए स्तोत्रकारों ने पीन कुच-कलश, पृथुल नितम्ब एवं रोमावली इत्यादि का खूब वर्णन किया है। नखशिख-वर्णन की आनावृत परम्परा वैदिक-साहित्य से प्रारम्भ होकर आधुनिककाल तक आती है। नखशिख-वर्णन नायिका की सौन्दर्यविषयक चेतना का प्रमुख अंग है। इसी चेतना से अनुप्राणित नायिकाओं की परम्परा आचार्य भरत के नाट्यशास्त्र से प्रारम्भ होकर आधुनिक सिनेमा-जगत् तक आती है।

आधुनिक सिनेमा की नायिकाएँ आचार्य भरत आदि लक्षणकारों की कल्पनाओं को मूर्त रूप प्रदान करती हैं। आज सिनेमा का दर्शक वैदिक-साहित्य, संस्कृत- साहित्य, तमिऴ्-साहित्य एवं हिन्दी आदि आधुनिक भाषाओं के साहित्य से परिचित न होने के कारण रजतपट पर थिरकती नायिकाओं की रूप-राशि का अवलोकन कर दिग्भ्रमित हो जाता है। वस्तुतः सिनेमा मनोरंजन का साधन बाद में है- कला पहले है। कला-चिन्तन की समग्र दृष्टि के बिना सिनेमा की नायिकाओं का मूल्यांकन सम्भव नहीं है।

भगवती पार्वती के भुवनेश्वरी रूप का स्तवन करते हुए आदि शंकराचार्य ने ‘आनन्दलहरी’ में जिस सौन्दर्य-सुधा को प्रवाहित किया है, वह अलौकिक और लौकिक दोनों ही है। भक्ति की पयस्विनी शृंगार का आस्वाद प्रदान करती है –

मुखे ते ताम्बूलं नयनयुगले कज्जलकला
ललाटे काश्मीरं विलसति गले मौक्तिकलता। स्फुरत्काञ्ची शाटी पृथुकटितटे हाटकमयी
भजामि त्वां गौरीं नगपतिकिशोरीमविरतम्।।5

प्रायः समस्त देवियों का ध्यान करते समय स्तोत्रकारों ने षोडश शृंगार का चित्रांकन किया है। महाकवि कालिदास की पार्वती का नखशिख वर्णन या शकुन्तला की अनिन्द्य सुषमा का आस्वाद केवल भोगवादी दृष्टि से नहीं किया जा सकता। सौन्दर्य का मांसल साक्षात्कार वासनाविरहित नेत्र से ही सम्भव है। संस्कृत-साहित्य में नायक-नायिका का आश्रय प्राप्तकर श्रृंगार की जिस रसगंगा का उद्दाम प्रवाह दृग्गत होता है, उसी में स्नान करके दाम्पत्य की स्वस्थ परम्पराओं का विकास हुआ है। ऋग्वेद के दशम मण्डल की अनेक कथाएँ सौन्दर्य की नूतन परिभाषाओं को गढ़ती हैं। उपनिषदों का दर्शन श्लेष के ब्याज से शृंगार अथवा सौन्दर्य की पाठशाला का निर्माण करता है। लौकिक साहित्य में स्मर-विलास से बढ़ी हुई शोभा को कान्ति कहा गया है। कान्ति का सम्बन्ध स्थूल मांसल सौन्दर्य से है। आचार्य विश्वनाथ कान्ति को परिभाषित करते हुए लिखते हैं- ‘सैव कान्तिर्मन्मथाप्यायितद्युतिः।’6

कान्ति का एक उदाहरण संस्कृत के लौकिक साहित्य से प्रस्तुत है-

नेत्रेखञ्जनगञ्जने सरसिजप्रत्यर्थिपाणिद्वयम्
वक्षोजौ करिकुम्भविभ्रमकरीमत्युन्नतिं गच्छतः।
कान्तिः काञ्चनचम्पकप्रतिनिधिर्वाणी सुधास्यन्दिनी स्मेरेन्दीवरदामसोदरवपुस्तस्याः कटाक्षच्छटा।।7

उस रमणी के नेत्र खंजन को परास्त करनेवाले तथा दोनों हाथ कमल के प्रतिद्वन्द्वी हैं। उसके पयोधर हाथी के मस्तक के सौन्दर्य को धारण करनेवाले तथा अत्यन्त उन्नत हैं। उसके शरीर की कान्ति कंचन तथा चम्पा पुष्प की प्रतिनिधि हैं। उसकी वाणी अमृत की वर्षा करनेवाली और नीलकमल की माला के सदृश सुशोभित कटाक्ष की शोभा प्रस्फुटित हो रही है।

सौन्दर्य के अनेक मोहक चित्र भारतीय साहित्य में उपलब्ध होते हैं। पुराणों में तारा, मेनका, शची, रम्भा, तिलोत्तमा, मारिषा, शकुन्तला आदि के सौन्दर्य की कथाएँ हैं। कृष्णकथा के अन्तर्गत राधा का अनिन्द्य सौन्दर्य दक्षिण से उत्तर तक अनेक रूपों में विद्यमान है। तमिळू के ‘दिव्यप्रबन्धम्’ में नप्पिन्नै के रूप में राधा का अवतरण एक नूतन सौन्दर्य का मानक गढ़ता है। हिन्दी के रीति साहित्य में राधा अपनी सखियों के साथ शृंगारी नायिका बनकर आती हैं। पूर्वी भारत में जयदेव एवं विद्यापति के साहित्य में राधा की सूक्ष्म एवं स्थूल दोनों ही छवियाँ विद्यमान हैं। रीति साहित्य में सौन्दर्य के एक एक क्षण सहेजे गये हैं। भादों की कारी अँधियारी रात में बादल घिर कर मन्द मन्द फुहार बरसा रहे हैं। ऐसे समय में राधा जी अपनी ऊँची अट्टालिका पर चढ़ी हुई प्रेम एवं आनन्दपूर्वक मल्हार राग गा रही हैं। उस समय कृष्ण के आतुर नेत्र दूर से राधा के सौन्दर्य की भिक्षा इस प्रकार प्राप्त करते हैं – पवन कृपा करके राधा के घूँघट-पट को हटा देता है और बिजली दयापूर्वक दीपक दिखाती है-

भादों की कारी अँध्यारी निसा
झुकि बादल मन्द फुही बरसावै।
राधिका आपनै ऊँचे अटा पै
चढ़ी रस रंग मलारहि गावै।
ता समैं नागर के दृग दूरि तैं
आतुर रूप की भीख यों पावै।
पौन मया करि घूँघट टारे
दया कर दामिनि दीप दिखावै।।8

यहाँ कवि का आशय यह है कि जिस समय काली अँधेरी रात में पूर्वा चलती है, तो राधा का वह चन्द्रानन जो घूँघट में छिपा हुआ है खुल जाता है और बिजली के चमकने से श्रीकृष्ण के दर्शनातुर नेत्र राधा के मुख-सौन्दर्य को भली- भाँति देख लेते हैं।

रीति साहित्य के सौन्दर्य-चित्रों की ही भाँति सिनेमा में भी अनेक भावग्राही क्षण विद्यमान हैं। ‘मुग़ल-ए-आज़म’ में अनारकली ने घूँघट उठाया और सलीम का दिल उसकी गोल बड़ी नथ में ही कहीं अटक कर रह गया। बाद में अनारकली की भूमिका निभानेवाली मधुबाला का यह चित्र सौन्दर्यप्रेमी दर्शकों के मनःपटल पर स्थायी रूप से अंकित हो गया। ‘राम तेरी गंगा मैली’ की नायिका मन्दाकिनी ने घूँघट उठाया और उसके खूबसूरत चेहरे पर सजी बिन्दी, नथ का शृंगार देख किसी को यह याद ही नहीं रहा कि फ़िल्म के एक दृश्य में अभी कुछ देर पहले वह अपने अनावृत स्तन के साथ विद्यमान थी। इसी तरह ‘राम लखन’ में माधुरी दीक्षित के घूँघट से झाँकते होंठ और उस पर झूलती नथ ने उस दौर में कितनी धड़कनों को रोक दिया, यह गिनना सम्भव नहीं।

वस्तुतः अलग अलग कालखण्ड और परिस्थितियों के बाद भी सौन्दर्यबोध एवं सौन्दर्य-प्रदर्शन में परिवर्तन नहीं हुआ। सिनेमा के दर्शक पारम्परिक सौन्दर्य के साथ साथ अनावृत छवि का आनन्द उठाने लगे हैं। कतिपय विश्लेषक इसे पाश्चात्य प्रभाव कहते हैं, किन्तु भारतीय काव्यशास्त्र में शृंगार-सौन्दर्य के सन्दर्भ में कहा गया है –

अर्थो गिरामपिहितः पिहितश्च कश्चित्
सौभाग्यमेति मरहट्ट वधूकुचाभः।
नान्ध्रीपयोधर इवातितरां निगूढः
नो गुर्जरीस्तन इवातितरां प्रकाशः।।9

काव्य का अर्थ महाराष्ट्र-वधू के कुच की तरह अर्द्धव्यंजित रहना चाहिए। उसे न तो आन्ध्रबाला के पयोधर की तरह बिलकुल गुप्त रहना चाहिए, न गुर्जर-युवती के स्तन की तरह बिलकुल प्रकट। इसलिए सिनेमा-निर्माताओं ने प्रारम्भ में नायिका की शरीर-सम्पत्ति का खूब ध्यान रखा। सौन्दर्य के छोटे छोटे क्षण दर्शकों को बाँधने में सक्षम रहे हैं। आकांक्षा पारे काशिव ने लिखा है- ‘सायरा बानो भाई बत्तूर गाते हुए बाथ टब में झाग में डूबी अपनी एक टाँग से दर्शकों को गुदगुदा रही थीं। अपनी दुबली बाँह पर बाजूबन्ध बाँधे माला सिन्हा ने दर्शकों को बाँध लिया था। चुस्त कमीज और चूड़ीदार पायजामे में भारी नितम्ब के साथ आशा पारेख स्टाइल आइकन बनी हुई थीं।’10

तत्त्वतः सिनेमा की नायिकाएँ दीदारगंज की चँवरधारिणी यक्षी और राजा रवि वर्मा द्वारा स्थापित सौन्दर्य की प्रतिमान नहीं थीं, लेकिन सौन्दर्य की परिभाषा उसके इर्द-गिर्द ही घूमती रही। यक्षी के मांसल नितम्ब और उन्नत उरोजों ने वर्षों तक नायिकाओं की ऐसी छबि बनाये रखा। कुछ हद तक जीनत अमान ने उस छवि की झलक अपने शारीरिक सौष्ठव में दी।

साठ के दशक की नायिकाओं को आरेखित करते हुए आकांक्षा लिखती हैं ‘साठ के दशक तक अपने चौड़े नितम्ब के साथ मीना कुमारी राजेन्द्र कुमार के साथ ‘दिल अपना और प्रीत पराई’ में प्यार के नग्में गाती थीं। वैजयन्तीमाला की सुडौल देहयष्टि उनके नायिका होने में कभी आड़े नहीं आयी। माला सिन्हा की परिपक्व देहभाषा भी उन्हें एक अदद प्रेमिका के रूप में स्थापित किये रही। आशा पारेख, मुमताज, साधना, सायरा बानो भले ही दुबली नायिकाएँ रहीं, लेकिन उनकी भरी भरी देह और चौड़ी कमर ने उन्हें उस दशक की लोकप्रिय नायिकाओं की सूची में बरकरार रखा।… इन भरी-पूरी नायिकाओं से टशन की ‘साइज़ ज़ीरो’ नायिका तक सेल्यूलाइड ने नायिकाओं को चाँद की तरह घटते- बढ़ते देखा। कुछ ईद की तरह अर्धचन्द्र होकर खूबसूरत हुई तो कुछ पूनम के चाँद की तरह भरी-पूरी होने के बाद भी चल निकलीं। मधुबाला यदि ईद का चाँद थीं, तो हेमा मालिनी पूनम का चाँद।’11

सिनेमा की नायिकाओं के सौन्दर्य का मानदण्ड बीच में ‘साइज़ जीरो’ होकर उभरा, किन्तु सत्तर एमएम पर जब माधुरी दीक्षित के उरोज चमकीली चोली में श्वास की गति से कम्पित हुए थे और पार्श्व में ‘धकधक करने लगा, मोरा जिया डरने लगा’ गीत बजा तब पूरे देश की धड़कन रुक-सी गयी थी। उस धकधक की अनुगूँज अभी तक माधुरी दीक्षित को ‘धकधक गर्ल’ बनाये हुए है। सिनेमा-समीक्षकों के अनुसार ‘परफेक्ट फिगर’ वाली माधुरी भारतीय सौन्दर्य की वास्तविक नायिका हैं। माधुरी के लिए साइज़ ज़ीरो का कोई अर्थ नहीं है।

भारतीय सिनेमा की नायिकाओं का सौन्दर्यशास्त्र राज कपूर के निर्देशन में अपने चरमोत्कर्ष को प्राप्त किया। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्राध्यापक डॉ. अमित शर्मा कहते हैं – ‘राज कपूर जैसा बहादुर और सफल निर्देशक अभी तक नहीं हुआ है। उन्होंने जो नायिकाओं का सौन्दर्य दिखाया, वह सिर्फ़ स्त्री-शरीर को दिखाने की कवायद नहीं थी। वह मांसल सौन्दर्य का संगीत था जिसका साज़ सिर्फ़ कपूर के पास था।’12

वस्तुतः भारतीय सौन्दर्यबोध नायिका की परिकल्पना जिस रूप में करता है, उसकी दो धाराएँ हैं। कामशास्त्र से पद्मिनी, चित्रिणी, हस्तिनी एवं शंखिनी नायिकाओं का सूत्रपात हुआ। काव्यशास्त्र के द्वारा परिभाषित नायिकाएँ संस्कृत सहित समस्त भारतीय भाषाओं के साहित्य में अपनी पूरी ताज़गी के साथ विद्यमान हैं। आचार्य भरत से लेकर फ़िल्म स्टार राज कपूर तक नायिकाओं के सौन्दर्यबोध का व्याकरण रचा जाता रहा। समय परिवर्तित होता रहा, किन्तु नायिकाओं का अनिन्द्य सौन्दर्य यथावत बना रहा। इसे आचार्य आनन्दवर्द्धन के प्रतीयमान अर्थ के माध्यम से व्यक्त किया जा सकता है। प्रतीयमान अर्थ और ही चीज़ है जो रमणियों के मुख, नेत्र, कर्ण, नासिका आदि प्रसिद्ध अंगों से पृथक् उनके लावण्य के समान महाकवियों की सूक्तियों में वाच्य अर्थ से अलग ही भासित होता है-

प्रतीयमानं पुनरन्यदेव
वस्त्वस्ति वाणीषु महाकवीनाम्।
यत् यत् प्रसिद्धावयवातिरिक्तं
विभाति लावण्यमिवाङ्गनासु।।13

सन्दर्भ

  1. आचार्य भिखारीदास : शृंगारनिर्णय – 29
  2. सन्त तिरुवल्लुवर : तिरुक्कुरल, छन्द-1101 सन्दर्भ – डॉ. एम्. शेषन् तमिऴ् संगम-साहित्य (2009 ई.), पृ. 99
  3. Dr. V. Sp. Manickam : The Tamil Concept of Love in Ahathinai, p.110
  4. महर्षि तोलकाप्पियर : तोलकाप्पियम्, पोरुल सूत्र- 113
  5. आदि शंकराचार्य : आनन्दलहरी स्तोत्र, श्लोक-3
  6. आचार्य विश्वनाथ : साहित्यदर्पण – 3/95
  7. डॉ. राजवंश सहाय ‘हीरा’ : भारतीय साहित्यशास्त्र कोश, पृ.600
  8. महाराज सामन्त सिंह ‘नागरीदास’ : रीति-शृङ्गार-मंजूषा (सं.डॉ. किशोरीलाल), पृ. 16
  9. डॉ. हरिमोहन झा : खट्टर काका, पृ. 170 पर उद्धृत
  10. आंकाक्षा पारे काशिव : मदहोश मादकता का सफ़र: आउटलुक, दिसम्बर 2011, पृ. 74
  11. आकांक्षा पारे काशिव: तदेव, पृ. 74-75
  12. डॉ. अमित शर्मा (उद्धृत-आकांक्षा पारे काशिव : मदहोश मादकता का सफ़र) आउटलुक, दिसम्बर, 2011, पृ. 75
  13. राजानक आनन्दवर्द्धनाचार्य : ध्वन्यालोक 1/4

© लेख – डॉ. जितेंद्रकुमार सिंह “संजय”

सोनभद्र के प्रसिद्ध साहित्यकार जितेंद्रकुमार सिंह “संजय” की पुस्तक “शब्दार्थकासौहित्य” (संस्करण 2016 ई., पृ. 249-256) से संकलित।

संकलन – आशीष कुमार गुप्ता (संपादक सोन प्रभात )

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