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रामचरितमानस -: “लछिमनहूँ यह मरम न जाना। जो कछु चरित रचा भगवाना।” – मति अनुरुप- अंक 32. जयंत प्रसाद

सोनप्रभात- (धर्म ,संस्कृति विशेष लेख) 

– जयंत प्रसाद ( प्रधानाचार्य – राजा चण्डोल इंटर कॉलेज, लिलासी/सोनभद्र )

–मति अनुरूप–

ॐ साम्ब शिवाय नम:

श्री हनुमते नमः

लक्षिमनहूँ यह मरम न जाना। जो कछु चरित रचा भगवाना।

श्रीरामचरितमानस के अरण्यकांड की कथा में एक बार जब लक्ष्मण जी भोजन हेतु कंद मूल लेने गए तो प्रभु ने सीता जी से अग्नि में वास करने को कहा ताकि वे अपनी आगे की नर लीला कर राक्षसों का नाश कर सके। यथा– 

सुनहु प्रियाब्रत रुचिर सुसीला। मैं कछु करबि ललित नर लीला।
तुम्ह पावक महुँ करहु निवासा। जब लगि करौं निसाचर नासा।

सीता जी ने प्रभु की आज्ञानुसार अपना प्रतिबिंब वहीं छोड़ अग्नि में वास किया। जिस मर्म को लक्ष्मण भी नहीं जान सके–  इसी कारण प्रभु तो अपनी लीलाओं में मर्यादाओं को निभाते रहे, पर मर्यादा के निर्वहन और लीलाओं में विलंब के कारण सीतान्वेषण में विलंब लक्ष्मण को कभी नहीं भाया क्योंकि वे नहीं जानते थे कि असली सीता का हरण नहीं हुआ है।  इस कारण जब भी विलंब होने लगता लक्ष्मण जी घबरा जाते थे।

जब विभीषण जी ने प्रभु को समुद्र से राह मांगने हेतु प्रार्थना करने की सलाह दी तो लक्ष्मण को ठीक नहीं लगा– राम तपस्या में विलंब करने लगे।

मंत्र न यह लछिमन मन भावा। राम वचन सुनि अति दुख पावा।

तीन दिन तक विनय करते रहे पर सिंधु ने जब विनय स्वीकार नहीं किया तो लक्ष्मण के पूर्व की प्रस्ताव के अनुसार–  “सोषिय सिन्धु करिय मन रोसा।”  करने को तैयार हुए तो लक्ष्मण को यह बात अच्छी लगी–

अस कहि रघुपति चाप चढ़ावा। यह मत लछिमन   के मन भावा।

अब सागर ने पार होने की तरकीब बता दी तो लक्ष्मण को फिर कुछ दुख हुआ। पुल बनाने में तो कुछ देर लगेगी पर प्रभु की आज्ञा शिरोधार्य था–  “सबते सेवक धर्म कठाेरा।” पुल बनकर तैयार हुआ तो रामेश्वरम की स्थापना की लीला प्रारंभ हो गई। लक्ष्मण जी बेबस भगवन की लीला देख रहे थे और सोच रहे थे कि वहां तो सीता जी को एक एक क्षण कल्प के समान बीत रहा है और यहा मंदिर स्थापना के कारण विलंब हो रहा है पर क्या करें?

इसी कारण सुबेल पर्वत शिखर पर मृग चर्म का आसन बना दिया कि अब विलंब न हो, प्रभु की कोई और लीला प्रारंभ न हो जाय और  शीघ्रातिशीघ्र रावण को जीतकर सीता मां को प्राप्त किया जा सके। अगर लक्ष्मण जी प्रतिविम्ब के सीता का रहस्य जानते तो उन्हें इतनी व्याकुलता नहीं होती।

लछिमनहूँ यह मरम न जाना। जो कछु चरित रचा भगवाना।

जय जय श्री सीताराम

-जयंत प्रसाद

 

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